Thursday, 27 January 2022

*बौद्ध संस्कृतीची जपमाळ जगभर प्रसिद्ध

 *बौद्ध संस्कृतीची जपमाळ जगभर प्रसिद्ध* 

The Significance of Mala Beads in Mahayana Buddhism


भगवान बुद्धांच्या काळानंतर तर्कशास्त्र व वास्तवता यांचा उदय झाला. प्रज्ञेच्या दृष्टीने विकास होत गेला. नैतिक विचारांना स्थान मिळू लागले. भगवान बुद्धांच्या शिकवणुकीमुळे दुःख मुक्तीच्या मार्गाचे, सत्यमार्गाचे आणि विज्ञानमार्गाचे आकलन लोकांना झाले. आंतरिक शांती ही मन विकारमुक्त केल्यानेच लाभते आणि ती ध्यानसाधनेमुळेच प्राप्त होते हे उमगले. मात्र ही स्थिती कायम राहिली नाही. संघामध्ये फूट पडली. सम्राट अशोक यांनी भरविलेल्या धम्मसंगिती नंतर दोनशे वर्षांनी ध्यानमार्गाची शुद्धता लोप पावू लागली. मन एकाग्र करण्याचे विविध मार्ग भारतात शोधले जाऊ लागले. यातूनच महायान पंथात मनाचे १०८ क्लेश दूर करून एकाग्रता साधण्यासाठी १०८ मण्यांची माळ जपणे चालू झाले. अवलोकितेश्वरांचे ध्यान करणे हा देखील उद्देश त्यामागे होता. ही पध्दत एवढी लोकप्रिय झाली की हिंदू, जैन यांच्या बरोबर मुसलमान, रोमन कॅथलिक आणि जगातील इतर संप्रदायात देखील ध्यानासाठी व ईश्वरनामासाठी जपमाळ ओढणे कालांतराने चालू झाले.


या जपमाळेत १०८ मणी का असतात ? याचे उत्तर बौद्ध संस्कृतीत आहे. बुद्धांनी सांगितले की चक्षू, श्रोत, घ्राण, जिव्हा, काया आणि मन हे सहा स्पर्शायतन ( इंद्रिये) आहेत. त्या कामतृष्णा, भवतृष्णा आणि विभवतृष्णामध्ये मोडतात.( ६ × ३ = १८) महायान पंथात त्या लौकिक आणि आध्यात्मिक प्रकारामुळे (१८×२) ३६ झाल्या. भूतकाळ वर्तमानकाळ आणि भविष्यकाळामूळे त्यांची एकूण संख्या ३६×३=१०८ आली. अशा या तृष्णांमुळे  दुःख उत्पन्न होत असते. या दुःखाचा प्रतित्यसमुत्पाद या  तत्वाने निरोध करता येतो. हेच तत्व वापरून एकएक मणी ओढली जाणारी जपमाळ महायान पंथात तयार करण्यात आली. कालांतराने त्यास मंत्रांचा उच्चार जोडण्यात आला. त्याचा पुढे अफाट प्रसार झाल्यावर अनेक संप्रदायानीं त्यास स्वतःच्या ईश्वराचे नाम जोडले. अशा तर्हेने १०८ मण्यांची जपमाळ जपत मन एकाग्र करण्यावर व ईश्वराचे नामस्मरण करण्यावर अनेक योगी, तपस्वी, धर्मगुरू यांनी भर दिला. 


सुरुवातीला जपमाळ ही लाकडी मण्यांची असे. कालांतराने ती रुद्राक्षाची, तुळशीमाळेची, स्फटिकांची, मोत्यांची बनविण्यात येऊ लागली. तरी त्यातील मण्यांची संख्या १०८च राहिली. हिंदू संप्रदायात रुद्राक्षाची जपमाळ  शिवशक्तीचे प्रतीक झाल्याने सर्वश्रेष्ठ मानली गेली. १०८ मणी पार केले की एक मेरुमणी जपमाळेत असतो. तो १०८ वेळा जप पूर्ण झाल्याची सूचना हाताला देतो. इस्लामी जपमाळेत ९९ मणी असतात तर कॅथलिक जपमाळेत १५० मणी असतात. अशा या जपमाळेचा उपयोग विविध पंथात ईश्वराच्या नामस्मरणासाठी होत असला तरी ध्यानधारणेसाठी ती योग्य परिणामकारक दिसून येत नाही. शेवटी मन एकाग्रतेसाठी शरीराच्या श्वासाचेच आलंबन योग्य ठरते. 


अशा या १०८ तृष्ण संख्येला जगात जादुई नंबर समजला जातो. तिबेटियन बौद्ध संस्कृतीमध्ये १०८ पवित्र ग्रंथ आहेत. भारतीय ज्योतिष शास्त्रातील ९ ग्रह आणि १२ राशी यांचा गुणाकार १०८ येतो. काठमांडूत एकूण १०८ बुद्ध प्रतिमा आढळून येतात. लिप वर्षात ३६६ दिवस असतात. त्यांच्या संख्येचा गुणाकार १०८ येतो. चीनच्या ज्योतिष शास्त्रात १०८ तारे आहेत. Fibonacci sequence या गणितीय सूत्रात १०८ संख्येला महत्व आहे. १०८ मधील संख्येची बेरीज ९ येते व तो लकी नंबर मानला जातो. चंद्र आणि पृथ्वी यांच्या मधील अंतर चंद्राच्या व्यासाच्या १०८ पट आहे. तसेच सूर्य आणि पृथ्वी यांच्या मधील अंतर सूर्याच्या व्यासाच्या १०८ पट आहे. अशा बऱ्याच गोष्टी १०८ संख्येशी निगडीत आहेत. तरी आपण जपमाळ घेऊन साधना करीत असाल तर ती मूळ बौद्ध महायान पंथाची देण आहे हे ध्यानी असू द्यावे. 


--- संजय सावंत (नवी मुंबई) https://sanjaysat.in


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प्रेम का प्रतिदान

 ।।प्रेम का प्रतिदान।।

-राजेश चन्द्रा- 


भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के लगभग 1000 साल बाद की बात है। 


कुशीनगर, जहाँ भगवान महापरिनिर्वाण को उपलब्ध हुए, में एक धनाड्य था- धेनुक। उनकी पत्नी थी शीलवती। दोनों बुद्धभक्त थे। उनकी बेटी थी पञ्ञाबाला। 


शीलवती अपनी बेटी पञ्ञाबाला को लेकर नियमित रूप से महापरिनिर्वाण मंच मुकुटबन्ध चैत्य जाती थी। वहाँ भगवान बुध्द की धातु रुप में पूजा करती थी। 


जिस स्थान पर भगवान बुद्ध का महापरिनिर्वाण हुआ, उनकी अस्थियाँ, पावन धातुएं स्थापित की गयीं उसे महा परिनिर्वाण मंच कहते हैं। वह स्थान शेष स्थानों से ऊँचा है। राज्याभिषेक के समय उसी स्थान पर मल्ल राजकुमारों को मुकुट पहनाया जाता था इसलिए उसे मुकुटबन्ध चैत्य भी कहते हैं। 


महापरिनिर्वाण मंच कच्ची मिट्टी का बना था। बारिश में प्रायः मिट्टी बह जाती थी। धेनुक और शीलवती की श्रद्धालु बेटी पञ्ञाबाला के मन में हुआ कि महापरिनिर्वाण मंच का उध्दार होना चाहिए। 


यह बात पञ्ञाबाला ने अपने समृद्ध पिता धेनुक से कही। धनी सम्पन्न व्यापारी स्वभावतः कुछ कंजूस भी होते हैं। उन्होंने अपनी बेटी की बात को सुनी अनसुनी कर दिया। 


युवती होने पर पञ्ञाबाला की शादी की बात चली। वर की खोज शुरू हुई। इसी बीच उसकी माँ शीलवती गम्भीर रुप से बीमार पड़ी। जीवित रहने की जब सारी सम्भावनाएं क्षीण हो गयीं है तो शीलवती ने अपने पति धेनुक को पास बुलाया,  बेटी पञ्ञाबाला का ख्याल रखने का भावुक संदेश देते हुए शरीर छोड़ दिया। 


जिन्दगी बेशर्म होती है। बहुत दिनों तक आंसुओं और विलाप के साथ जीती नहीं है। खाना-पीना, हंसना-खेलना, आमोद-प्रमोद, हास-परिहास फिर शुरु हो जाता है। 


पिता धेनुक ने बेटी पञ्ञाबाला के लिए वर खोज लिया- पावा के श्रेष्ठिपुत्र हरिबल के रूप में, जो निगंठ श्रद्धालु है। 


दोनों का बहुत धूमधाम के साथ विवाह समारोह हुआ। 


एक दिन, विवाह के उपरान्त, पञ्ञाबाला महापरिनिर्वाण मंच पर गयी। 


उस दिन नगर में मेला लगा है। चारो तरफ सजावट है। हाटें लगी हैं। लोग रंगबिरंगे परिधानों में हास-परिहास करते घूम रहे हैं। हवाओं में गीत-संगीत लहरा रहा है। जिन्हें नृत्य नहीं आता उनके भी पैर थिरक रहे हैं, जिन्हें गीत नहीं आता उनके भी होठ गुनगुना रहे हैं, जिन्हें काव्य नहीं आता वे भी  कवि हो रहे हैं... 


लेकिन पञ्ञाबाला का मन उदास है। महापरिनिर्वाण मंच की जीर्ण अवस्था देख कर वह दुःखी है। उसके मन में है कि इस पावन स्थान का उद्धार होना चाहिए। 


उसने अपने पिता से अनुरोध किया था- विवाह के पूर्व भी, विवाह के बाद भी- पिता ने अनसुनी कर दिया। अब वह भी इस दुनिया में रहे नहीं। पति है तो वह दूसरे मत को मानने वाला है, वह भी अपनी पत्नी के मन की पीड़ा समझता नहीं। 


इसी बात से दुखी उदासमनः हो कर पञ्ञाबाला बैठने की जगह देख कर एक जगह बैठ गयी: 


भीड़ है रेला है, शोर है मेला है

एक शख़्स है भीड़ में अकेला है 


पञ्ञाबाला भीड़ में भी अकेली उदास बैठी है। उसकी सहेलियाँ  ढूढ़ते हुए उसके पास आती हैं, उससे उदासी का सबब पूछती हैं। वह मन की बात टाल देती है, तब सहेलियाँ उलाहना देती हैं- हाँ, हाँ, नयी-नयी शादी हुई है, इस उम्र में अकेले होने पर मन उदास हो ही जाता है... 


पञ्ञाबाला इस उलाहना से आहत होती है। और आख़िर अपने मन की पीड़ा सहेलियों से कह देती है कि उसके मन में

बचपन से महापरिनिर्माण मंच के उद्धार की बात चल रही है लेकिन अभी तक पूरी नहीं हो पा रही है। 


सहेलियाँ उसे आश्वस्त करती हैं कि हम तेरे पति से कहेंगी। वे सब हरिबल के पास जाती हैं। उसे बातों में बाँधती हैं- तुम अपनी पत्नी पञ्ञाबाला को प्यार नहीं करते? 


हरिबल- क्यों नहीं करता... 


तो क्या तुम उसकी एक इच्छा पूरी नहीं कर सकते? 


मैं अपनी प्रिय पञ्ञाबाला की इच्छा पूरी करने के लिए कुछ भी कर सकता हूँ, यह कहे तो सही। 


सारी सहेलियाँ उसे अपनी बात स्वयं कहने के लिए प्रेरित करती हैं। पञ्ञाबाला उत्साहित मन से अपनी इच्छा व्यक्त करती है- महापरिनिर्वाण मंच जीर्ण हो चुका है। आप समृद्ध हैं, सम्पन्न हैं, उस पावन धम्म स्थल का उद्धार करा दीजिये... 


दूसरे मत का कट्टर अनुयायी होने के कारण परिनिर्वाण मंच के उद्धार कराने की इच्छा जान कर हरिबल भड़क उठता है- तुम्हें अपने लिए कोई सुख, साधन, सुविधा, आभूषण  चाहिए तो बताओ,  मंच का उद्धार मैं क्यों कराऊँ! 


दोनों के बीच काफी ज्यादा वाद-विवाद होता है और दोनों अलग-अलग दिशा में चले जाते हैं। 


मेले की भीड़ में एक तरफ दुःखी-उदास पञ्ञाबाला एकान्त देख कर बैठी है और दूसरी तरफ हरिबल पेड़ों-झाड़ियों की ओट में टहल रहा है। 


इसी बीच दुर्घटना यह हो गयी कि झाड़ी से निकल कर एक सांप ने हरिबल को डस लिया। 


आस-पास शोर मच गया- एक आदमी को सांप ने डस लिया, एक आदमी को सांप ने डस लिया... 


यह शोर दूर कहीं बैठी पञ्ञाबाला के कानों में भी पड़ा। वह भी उत्सुकतावश उसी भीड़ की तरफ आयी। देखा, भीड़ घेरा बना कर खड़ी है। कोई कह रहा है- जहर अभी चढ़ रहा है, बदन नीला पड़ रहा है, लगता है मर गया है, नहीं सांस अभी चल रही है, कोई राजपुत्र लगता है, कपड़ों-आभूषणों से अमीर लगता है, शायद अकेला है, वेशभूषा तो श्रेष्ठि की है... 


इन आवाज़ों को सुन कर भीड़ को चीरते हुए पञ्ञाबाला भी आगे जाती है और हरिबल को देख कर चीख पड़ती है, उसके मन में विचारों का बवण्डर उमड़ पड़ता है- मैंने विवाद किया इस कारण यह हो गया, मुझे परिनिर्वाण मंच उद्धार  की बात नहीं करती चाहिए थी, मैंने यूँ तू-तू-मैं-मैं न की होती तो वह अकेले में क्यूँ टहलते... 


वह दौड़ कर पूरे शरीर का परीक्षण कर देखती है कि सांप ने डसा कहाँ पर है, उसको पैर के अंगूठे से खून बहता दिखता है, बस वह सपना मुँह पैर के अंगूठे से लगाकर विषैला रक्त चूस-चूस कर थूकना शुरू करती है... 


काफी देर के बाद हरिबल के शरीर का नीलापन कम होने लगता है, लेकिन पञ्ञाबाला का बदन नीला पड़ने लगता है, हिरबल का शरीर हरकत करने लगता है, मगर पञ्ञाबाला का शरीर शिथिल होने लगता है... 


सारी भीड़ के मुँह से एक साथ निकला- आदमी की आँखें खुल गयीं... 


पञ्ञाबाला बेहोश हो गयी और उसकी आँखें बन्द हो गयीं। हरिबल उठ बैठा और पञ्ञाबाला चल बसी। 


अब हरिबल के मन में विचारों का तूफ़ान उमड़ने लगा- अपनी पत्नी की मान ली होती तो अच्छा था, उसकी आस्था को ठेंस न पहुंचायी होती तो यह टुर्घटना न होती, उसने रुठकर भी ख़ुद मर कर मेरी जान बचायी, इतनी प्यारी पत्नी की इच्छा पूरी न कर मैंने घोर पाप किया, मुझे धिक्कार है... 


फिर वह भावावेग में दृढ़ संकल्प लेता है- पञ्ञाबाला , आपके त्याग को में व्यर्थ नहीं जाने दूँगा... 


पत्नी का दाह संस्कार करनेके उपरान्त वह चीवर धारण कर प्रव्रजित हो जाता है। 


वह मथुरा से सुप्रसिध्द कलाकार दीन को बुलवाता है। नदी मार्ग से मथुरा से पत्थर मंगवाता है। भगवान की महापरिनिर्वाण की मूर्ति बनवाता है और महापरिनिर्वाण मंच का पुनरोद्धार कराता है... 


कुशीनगर में वर्तमान में भगवान बुद्ध की 22 फुट लम्बी लेटी हुई मुद्रा की जो मूर्ति हरिबल ने बनवाई हुई है... यह एक श्रध्दालु उपासिका की इच्छा पूर्ति का, संकल्प पूर्ति का,  साकार रुप है जो मृत्यु के उपरान्त पूर्ण हुआ...

Wednesday, 26 January 2022

कान्हेरीतील निलकंठ लोकेश्वर

 #कान्हेरीतील_निलकंठ_लोकेश्वर 


कान्हेरीतील लेणी क्र. 41 ही भारतातील एकमेव अकरा मुख ( एकदसमुख ) असलेल्या अवलोकितेश्वर बोधिसत्वाच्या शिल्पासाठी प्रसिद्ध आहे परंतु या लेणीत आणखी एक अप्रकाशित शिल्प आज लेणीतील दगडावर वातावरणाचा परिणाम होऊन नष्ट होण्याच्या मार्गावर आहे. लेखाच्या लेखकाचा या शिल्पाबाबत असा कयास आहे की हे शिल्प अवलोकितेश्वर बोधिसत्वाच्या 108 रुपांपैकी / प्रकारांपैकी एक असून त्याला निलकंठ लोकेश्वर असे संबोधतात. निलकंठ लोकेश्वराचे हे शिल्प लेणी क्र. 41 मध्ये अनेक ठिकाणी पाहायला मिळते. 

या लेणीतील हे शिल्प पहिल्यांदा जेव्हा लेखकाच्या दृष्टोत्पत्तीस आले तेव्हा ते सम्यक सम्बुद्धांच्या शिल्पाहून वेगळे असल्याचे जाणवले. शिल्प समाधी अवस्थेत जरी असले तरी त्याच्या डोक्यावरील केस हे खांद्यापर्यंत कुरळे असे रूळलेले होते त्यावरून नक्कीच हे सम्यक सम्बुद्धांचे शिल्प नाही हे निश्चित होत होते. 


हल्लीच सारनाथ येथे धम्मयात्रेत तेथील प्राचीन वस्तूसंग्रहालय पाहत असताना एक शिल्प दृष्टीस पडले ज्याचे शीर हुबेहूब कान्हेरीतील शिल्पासारखे होते. त्याला तिथे निलकंठ अवलोकितेश्वर संबोधले गेले आहे. म्हणून या निलकंठ लोकेश्वरासंबधी आणखी जाणून घेण्याची इच्छा निर्माण झाली. 


#निलकंठ_लोकेश्वर_ओळखण्याचे_चिन्ह - 


1. निलकंठ लोकेश्वराचे केस खांद्यापर्यंत कुरळे असतात. 


2. निलकंठ लोकेश्वराला एक चेहरा दोन हात असून समाधी अवस्थेत दोन्ही हातात रत्नांनी भरलेले पात्र असते. 


3. ते पात्र काही शिल्पात छातीपर्यंत असते, काही शिल्पात समाधी अवस्थेत दोन्ही हातात असतं तर निलकंठ लोकेश्वराचे हिंदुकरण झाल्यानंतरच्या शिल्पात ते एकाच उजव्या हातात विषाचा प्याला म्हणून दाखविला जातो. 


4. निलकंठ लोकेश्वर कमळामध्ये आसनस्थ असतो. 


5. निलकंठ लोकेश्वराचे शिल्प हे वज्रयानी प्रभाव असलेल्या लेणीत आढळते. 


#कान्हेरीतील छायाचित्रात दाखविलेले शिल्प निलकंठ लोकेश्वराचे असल्याबद्दलचे लेखकाचे मत. 


1. आज शिल्पाची पडझड होऊन बरीच दुरावस्था जरी झाली असली तरी हे शिल्प लेणी क्र. 41 मध्ये आहे जिथे वज्रयान आपल्याला बहरलेला दिसतो. 


2. लेणी क्र. 41 अवलोकितेश्वर व वज्रयानातील देवता यांच्या शिल्पांसाठी प्रसिद्ध होती / आहे. 


3. असेच हुबेहूब शिल्प सारनाथ येथे आहे. 


4. कान्हेरीतील शिल्प आज अस्पष्ट जरी असले तरी वज्रयानी वाङ्मयांत उल्लेखल्याप्रमाणे या शिल्पात खांद्यापर्यंतचे कुरळे केस, कमळात आसनस्थ व समाधी अवस्था स्पष्ट दिसते. फक्त पडझड झाल्यामुळे हातातील पात्र स्पष्ट दिसत नाही. 


- अरविंद भंडारे 

अध्यक्ष 

पालि रिसर्च इन्स्टिट्यूट मुंबई

24/01/2020


( सदर छोटेखानी लेखातील संशोधन हे लेखकाचे स्वतचे मत आहे. आपणाकडे अधिक व योग्य माहिती उपलब्ध असल्यास दुरुस्ती व सूचना सुचवू शकता )





Tuesday, 25 January 2022

भारतीय लोकशाहीची मूल्ये आणि बुद्ध विचार

 *भारतीय लोकशाहीची मूल्ये आणि बुद्ध विचार* 


राज्यघटनेच्या मसुदा समितीची स्थापना २९ ऑगस्ट १९४७ साली झाली व पहिली बैठक ३० ऑगस्ट रोजी पार पडली व सलग २ वर्षे, ११ महिने आणि १७ दिवसांनंतर म्हणजेच २६ नोव्हेंबर १९४९ रोजी सादर करण्यात आली. येत्या २६ नोव्हेंबरला, त्या ऐतिहासिक घटनेला, ७२ वर्षे पूर्ण होतायत. 


राज्यघटनेच्या preamble (प्रस्तावना) मधील सुरुवातीच्या ओळींमध्ये म्हटल्या प्रमाणे, भारत एक सार्वभौम, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष लोकशाही गणराज्य म्हणून ओळखले जाणार असे म्हटले आहे.


लोकशाहीची व्याख्या आणि व्याप्ती स्पष्ट करताना बाबासाहेब म्हणतात,"लोकांच्या आर्थिक व सामाजिक जीवनात, जिच्याद्वारा रक्तपाताशिवाय मूलगामी क्रांतिकारक बदल घडवून आणता येतात अशी शासनाची घडण आणि पद्धती म्हणजेच लोकशाही होय". म्हणजेच या देशातील प्रत्येक व्यक्तीला राजकीय, आर्थिक आणि सामाजिक लोकशाहीच्या माध्यमातून स्वतःचा उत्कर्ष करण्याचे स्वातंत्र्य असेल. मात्र ते निक्षून सांगतात कि, "राजकीय लोकशाहीने आपण संतुष्ट राहता कामा नये कारण याचे रूपांतर सामाजिक आणि आर्थिक लोकशाहीत झाले पाहिजे”. कारण आर्थिक आणि सामाजिक लोकशाही जर नसेल तर राजकीय लोकशाहीला अर्थ उरत नाही आणि मग तिची वाटचाल हुकूमशाही कडे सुरु होते. लोकशाही ही फक्त स्वातंत्र्य, समता आणि बंधुता या अखंड आणि अभंग अशा त्रयींवर  टिकून आहे. 


सामाजिक आणि आर्थिक लोकशाहीला सर्वात मोठा अडथळा येथील जाती व्यवस्थेचा आहे हे देखील बाबासाहेब जाणून होते. कारण जातीनिष्ठ समाज, व्यक्तीला स्वउन्नतीचे शिक्षण किंवा व्यवसाय करण्याचे स्वातंत्र्य नाकारते. त्यामुळे लोकशाही रुजविण्यासाठी जातिभेदाविरुद्ध लढा देणे गरजेचे आहे.


बाबासाहेबांचा लढा हा विशिष्ट जाती  विरुद्ध मर्यादित नव्हता तर तो लढा उच्चनीचभेदाला होता. 'बहिष्कृत भारतच्या १ जुलै १९२७च्या अंकात बाबासाहेब लिहितात, "ब्राह्मण लोक आमचे वैरी नसून ब्राह्मण्यग्रस्त लोक आमचे वैरी आहेत असे आम्ही मानतो". ब्राह्मण्यची व्याख्या करताना मनमाड येथील भाषणात बाबासाहेब म्हणतात,"स्वातंत्र्य, समता आणि बंधुता यांना नकार म्हणजेच ब्राह्मण्य होय"


बुद्ध विचारातील दुःख या अरिय सत्याला बाबासाहेबांनी सामाजिक दृष्ट्या शोषणाचे स्वरूप दिले आणि सदोष समाज रचना हे या शोषणाचे मूळ कारण आहे असे नमूद केले. या मानवी दुःखाचे निवारण करायचे झाल्यास, मूठभर लोकांना मिळणारा लाभ सामाजिक लोकशाहीच्या मार्गाने सर्वांना मिळावा असे त्यांना वाटे. जात व वर्ग हे शोषणाचे दोन मार्ग असून त्यांचे उच्चाटन झाल्याशिवाय समाजात स्वातंत्र्य, समता आणि बंधुता नांदणार नाही हे ही बाबासाहेब स्पष्ट करतात. ते पुढे म्हणतात कि लोकशाहीच्या मूल्यांनुसार धर्माची चिकित्सा करणे गरजेचे आहे. स्वातंत्र्य, समता आणि बंधुता या त्रयींवर आधारित धर्माची बांधणी असावी असा बाबासाहेबांचा आग्रह होता. 


Annihilation of Castes मध्ये बाबासाहेब म्हणतात, "मला विचाराल तर माझा आदर्श समाज म्हणजे स्वातंत्र्य, समता आणि बंधुता वर आधारित समाज असेल". बाबासाहेब या तिन्हींवर जोर देतात त्याचे कारण म्हणजे या तिन्हीं पैकी एक जरी नसेल तरी समाजस्वास्थ्य बिघडू शकेल. याचे महत्त्वाचे कारण या त्रयींचे आपसातील संबंध. समतेशिवाय स्वातंत्र्य आणि बंधुताला अर्थ नाही, बंधुताशिवाय स्वातंत्र्य आणि समतेला अर्थ नाही तर समता आणि बंधुता शिवाय मनुष्याच्या स्वातंत्र्याला स्वार्थीपणा येतो. या तिन्हींचे सहअस्तित्व गरजेचे आहे तरच समाज सुदृढ होऊ शकेल. बुद्धांनी सांगितलेल्या मार्गात या तिन्हींचे सहअस्तित्व आहे असेही बाबासाहेब नमूद करतात. 


२५ नोव्हेंबर १९४९ मध्ये घटना समितीच्या शेवटच्या भाषणात बाबासाहेब म्हणाले, "लोकशाही ही प्राचीन भारताची ओळख होती. संसदीय प्रक्रिया ही बुद्धांच्या भिक्खू संघाला लागू होती”. म्हणजेच आजच्या लोकशाहीची मूल्ये ही प्राचीन बुद्ध विचारांची बीजे आहेत. लोकशाहीची मूल्ये जपली नाही तर त्या जागी हुकूमशाही राजवट येईल आणि देश पुन्हा पारतंत्र्यात जाऊ शकेल ही बाबासाहेबांची भीती होती. यासाठी लोकशाहीने प्रदान केलेले स्वातंत्र्य प्राणपणाने जपले पाहिजे असेही आवाहन ते करतात.


स्वातंत्र्यावर गदा दोन कारणांनी येऊ शकते: जर लोकांनी पक्षाचे हित राष्ट्रहितापेक्षा मोठे मानले तर आणि दुसरे कारण म्हणजे जर लोकांनी विभूतिपूजेला जास्त महत्त्व दिले तर. यावर बोलताना बाबासाहेब म्हणतात," माणूस कितीही मोठा असला तरी आपले स्वातंत्र्य त्याच्या पायावर अर्पण करू नये; असे केल्याने त्याच्या हातात संपूर्ण सत्ता दिल्यासारखे होईल आणि अशी व्यक्ती लोकशाही संस्था नाश करू शकेल एवढी सामर्थ्यवान होऊ शकेल. आजची परिस्थिती पाहता बाबासाहेब किती दूरदृष्टी होते हे लक्षात येईल. 


लोकशाही आणि त्यायोगे प्रत्येक भारतीयाला मिळालेले स्वातंत्र्य टिकवायचे असेल तर बाबासाहेब तीन मार्ग सांगतात: 


१. राष्ट्रहिता पेक्षा कोणालाही अथवा कोणत्याही गोष्टीला श्रेष्ठ मानू नये.


२. राजकारणातील विभूतिपूजा ही राष्ट्राला अधोगतीकडे नेणारी असून, हुकूमशाही राजवटीचा पाया आहे. त्यामुळे राजकारणातील विभूतिपूजा प्रत्येकाने नाकारावी.


३. राजकारणातील लोकशाहीचे रूपांतर सामाजिक आणि आर्थिक लोकशाहीत जितक्या लवकर करता येईल ते केले पाहिजे. 


याचाच अर्थ, जातिविरहित,  समतावादी, मूल्याधिष्ठित समाज व्यवस्था हे बाबासाहेबांचे स्वप्न होते. हे स्वप्न सत्यात उतरविण्यासाठी लोकशाही मूल्य आणि बुद्ध विचार ही त्यांची साधने होती. 


२६ ऑक्टोबर १९५१ मध्ये जालंधर येथील दयानंद कॉलेज मध्ये व्याख्यान देताना बाबासाहेब म्हणाले, "संसदीय लोकशाही भारताला नवीन नाही. महापरिनिर्वाण सुत्तात त्याचे पुरावे आढळतात. आर्थिक, सामाजिक व राजकीय स्वातंत्र्य हे बौद्ध धम्माचे सार आहे. लोकशाहीचा प्रणेता म्हणून भ. बुद्धांची नोंद इतिहासात आहे. म्हणून माणसाला खरे स्वातंत्र्य बुद्ध विचारातच आढळेल”. मग नेमका बुद्ध विचार आपल्याला लोकशाहीची मूल्ये कशा प्रकारे सांगतो?


प्रत्येक मनुष्याला, कुठल्याही जाती, धर्म अथवा पंथाचे निकष न लावता उत्कर्षापर्यंत पोहचविणे हे बुद्धविचारांचे ध्येय आहे. 


बुद्धांनी आपल्या संघात लोकशाहीची मूल्य पुरेपूर रुजवल्याचे दिसते. प्रत्येकाला बुद्ध विचार जाणून घेण्याचे व ते पटल्यास आचरण करण्याचा पूर्ण अधिकार होता. त्याच बरोबर ज्यांना पटले नाही त्यांना ते नाकारण्याचाही अधिकार होता. म्हणजेच बुद्धांनी कोणावरही जबरदस्ती केली नाही. प्रत्येकला निर्णय घेण्याचे स्वातंत्र्य. बुद्धांनी स्वतःला कुठेही मुक्तिदाता अथवा मोक्षदाता म्हणून संबोधले नाही. कालाम सुत्तात बुद्ध म्हणतात कि मी म्हणतोय म्हणून ग्राह्य धरू नका, कुठे लिहिले आहे म्हणून ग्राह्य धरू नका, कोणी बळजबरी करतंय म्हणून मान्य करू नका, तर स्वतःच्या सद्सद्विवेक बुद्धीला विचारून निर्णय घ्या. म्हणजेच बुद्धांनी प्रत्येकाला विचार करण्याचे व त्यायोगे स्वतः निर्णय घेण्याचे स्वातंत्र्य दिले होते. आपल्या संघामध्ये बुद्धांनी सर्वांना मुक्त प्रवेश दिला.“एही पस्सिको” म्हणजे या आणि पहा म्हणत त्यांनी नवागतांना संघामध्ये विना दीक्षा राहण्याची परवानगी दिली आणि योग्य वाटल्यास संघामध्ये दीक्षा घ्या हे सांगितले. एवढेच नव्हे तर समजा एखाद्या भिक्खूला संघ त्याग करायचा असेल तर त्याला ते स्वातंत्र्य होते. म्हणजेच संघात आल्यानंतरही कोणावरही जबरदस्ती नव्हती. बुद्धांच्या भिक्खू भिक्खुणी संघात अनेक राजपुत्र, व्यापारी, धनिक व सामान्य लोक होते, मात्र सर्वांना नियम सारखाच होता. बुद्धांची देशना ही सर्वांना समान होती व त्यात कुठेही आचार्यामुष्टि हा प्रकार नव्हता. म्हणजेच संघा मध्ये समता होती. स्त्री पुरुष, उच्च नीच, गरीब श्रीमंत, राजा प्रजा असा भेद न करता बुद्धांनी सर्वांना संघात प्रवेश दिला आणि सर्वांना एकाच पद्धतीने, उत्कर्षापर्यंत पोहचण्याची संधी दिली.   संघाचे प्रत्येक आचरण समतावादी होते. भिक्खू भिक्खुणी संघात दान म्हणून आलेल्या प्रत्येक वस्तूवर संघाचा अधिकार होता. येणाऱ्या प्रत्येक अडचणींवर संघ एकत्रित येऊन काम करत होता. आजारपणात भिक्खुच एकमेकांची काळजी घेत. एवढेच नव्हे तर आजारी भिक्खू साठी इतर भिक्खू भिक्षाटन करून त्यांच्या भोजनाची व्यवस्था करत. एखादा महत्त्वाचा निर्णय घेण्यासाठी भिक्खू भिक्खुणींची परिषद बोलावली जात व सर्व सांगोपांग चर्चा झाल्यानंतर सर्वानुमते निर्णय घेतला जात. बुद्धांच्या संघात समता आणि बंधुता रुजवली गेली होती. दुःखमुक्ती हा मानव कल्याणाचा मार्ग कळल्याने अनेक भिक्खू भिक्खुणी सर्वसामान्यांना त्या ज्ञानाचा प्रसार करीत. हे करताना भिक्खुंमध्ये सर्वसामान्यांप्रती करुणा आणि बंधुतेची भावना होती हे लक्षात घेतले पाहिजे.   


आज धार्मिक कर्मकांडाच्या माध्यमातून आपल्या देशातील लोकांना सर्रासपणे भुलविले जाते व लोकशाहीच्या मूल्यांपासून दूर नेले जाते. हा एक महत्त्वाचा शोषणाचा मार्ग आहे. 


अडीच हजार वर्षांपूर्वी लोकशाहीची मूल्ये राबविल्यामुळेच बाबासाहेबांनी बुद्धांना लोकशाहीचा प्रणेता म्हटले आहे. बुद्धांच्या प्रत्येक विचारात स्वातंत्र्य, समता आणि बंधुता ही तत्वे पाहायला मिळतात. यामुळेच बाबासाहेबांनी जाहीरपणे सांगितले कि राज्यघटनेचा मूळ पाया असलेली तत्वे, ही बुद्ध विचारातून घेतली आहेत. 


आज आजूबाजूला असलेल्या विघातक शक्ती हे मूलमंत्र बिघडून टाकण्याचे काम करताना दिसतात. म्हणूनच स्वातंत्र्यापासून पारतंत्र्याकडे नेणारा प्रत्येक राजकीय, सामाजिक, आर्थिक आणि धार्मिक विचार आणि ते राबविणारे विविध माध्यमे, समतेकडून जाती, धर्म आणि उच्च नीच भेदभावाकडे नेणारा असमतेचा विचार आणि या योगे भारतीयांमध्ये बंधुता नष्ट करण्याचा प्रयत्न्न यांचा आम्ही प्रखर विरोध केला पाहिजे तरच या देशात लोकशाहीची मूल्ये अबाधित राहतील.


एडमंड बुर्कने म्हणतो - वाईट विचारांच्या लोकांचा विजय तेव्हाच होतो जेव्हा चांगल्या विचारांची लोके शांत बसतात. लोकशाही मूल्यांच्या संदर्भात हे बोलायचे झाल्यास लोकशाही मूल्ये पायदळी तुडवणाऱ्यांचे मनसुबे उधळून लावण्यासाठी लोकशाही मूल्ये जपणाऱ्यांनी आता एकजूट करायला पाहिजे. 


ही काळाची गरज नव्हे, तुमच्या आमच्या स्वातंत्र्याची परीक्षा आहे. ही स्वातंत्र्याची परीक्षा आपण सर्वजण चांगल्या मार्कांनी पास होऊ यासाठी प्रयत्न करू यात. 


 *अतुल भोसेकर

9545277410*

सवितामाई

 भीमराव नावाच्या हिऱ्याचे कोंदण : सवितामाई !


विसाव्या शतकातील भारतीय राष्ट्र आणि भारतीय समाज यांच्यावर ज्या महान व्यक्तीमत्वांचा आत्यंतिक प्रभाव पडला आहे त्यामध्ये डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांचे सर्वोच्च स्थानावर आहे. या महान व्यक्तिमत्वाला आकार देण्यात ज्या काही मोजक्या व्यक्तींनी पराकोटीचा त्याग केला त्यामध्ये बाबासाहेबांची प्रथम पत्नी रमाई आणि रमाईच्या मृत्यूनंतर १३ वर्षांनी बाबासाहेबांच्या आयुष्यात प्रवेश केलेल्या सावितामाई यांचे स्थान सर्वात वरचे आहे. 

शारदा कबीर या कृष्णराव विनायकराव कबीर आणि जानकीबाई कबीर या मूळच्या रत्नागिरीतील राजापूर तालुक्यातील दाम्पत्याच्या पोटची मुलगी. सारस्वत ब्राह्मण कुटुंबातील शारदा यांचा जन्म 27 जानेवारी 1912 रोजी झाला. घरात शारदा मिळून एकूण आठ भावंडं. लग्नानंतर 'शारदा कबीर'च्या 'सविता आंबेडकर' झाल्या. मात्र, बाबासाहेबांसाठी त्या कायम 'शरू'च राहिल्या, तर अनुयायांसाठी 'माईसाहेब' बनल्या. डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांचा सहवास माईसाहेबांना नऊ वर्षेच लाभला. बाबासाहेबांच्या संघर्षात त्या साथी बनल्या. मात्र बाबासाहेबांच्या महापरिनिर्वाणानंतरही त्यांना संघर्ष चुकला नाही. या काळाला माई 'कसोटीपर्व' म्हणायच्या. सवितामाईनी बाबासाहेबांच्या उतारार्धातील जीवनात सर्वार्थाने बाबासाहेबांची सावली होऊन प्रत्येक प्रसंगात बाबासाहेबांना सावरून धरले. मधुमेह,न्युरायटीस, उच्च रक्तदाब, संधिवात अशा अनेक व्याधींनी ग्रस्त असलेल्या डॉ.बाबासाहेब आंबेडकरांना त्यांनी आपल्या वैद्यकीय कौशल्याने पुढील आठ वर्षे प्रज्वलित ठेवले. बाबासाहेबांच्या हळूहळू विझत जाणाऱ्या जीवनज्योतिची मानसिक ऊर्जा म्हणून त्या अखंड कार्यरत राहिल्या. सवितामाईंची प्रेमळ सेवा आणि काळजीपूर्वक केलेली शुश्रुषा यामुळेच आयुष्याच्या शेवटच्या पर्वात बाबासाहेबांची कीर्ती आणि सन्मान अखिल विश्वामध्ये वाढविणारी महान कार्ये त्यांच्या हातून घडली असे म्हणावे लागेल. मात्र माईंच्या या महान त्यागाची, स्वतःचे आयुष्य पणाला लावून केलेल्या सेवेची कदर करण्याच्या ऐवजी त्यांच्या वाट्याला उपेक्षा आणि टीकाच आली. खरेतर माईसाहेबांचा त्याग एवढ्या उच्च दर्जाचा आहे की त्या त्यागाचे मोल होऊ शकत नाही. तरीही स्वतःला आंबेडकरवादी म्हणविणाऱ्या प्रत्येक व्यक्तींनी माईसाहेबांचा बावनकशी त्याग समजून घेऊन त्यांचा कायम ऋणी राहिले पाहिजे. बाबासाहेबांच्या कर्तृत्वाचा लाभ घेऊन आज सुख-चैन भोगणाऱ्या प्रत्येक स्त्रीने माईसाहेबांचे चरित्र वाचून प्रेरणा घेतली पाहिजे.नव्हे प्रत्येक आंबेडकरी स्त्रीने सवितामाईंनी स्वतः लिहिलेले ‘ डॉ.आंबेडकरांच्या सहवासात ‘ हे आत्मचरित्र वाचलेच पाहिजे.   

  माईसाहेबांच्या संपूर्ण आयुष्यावर एक वरवरची नजर टाकली तरी लक्षात येईल की, त्यांच्या आयुष्याचा एकूणच प्रवास हा एखाद्या सर्वसाधारण स्ञी प्रमाणे नाही. सवितामाई म्हणजे एक असामान्य बुध्दीमान,करुणावान, त्यागमयी स्त्री होती. एका सुखवस्तू सारस्वत ब्राह्मण कुटुंबात जन्मलेल्या माईंचे माहेरचे नांव शारदा कृष्णराव कबीर होते. त्यांचे कुटुंब रत्नागिरी जिह्यातील राजापूर तालुक्यातील डोर्ले या गावचे होय. माईसाहेबांचा जन्म २७  जानेवारी १९१२  रोजी मुंबईत झाला.त्यांचे वडील कृष्णराव तत्कालीन मुंबई राज्याच्या आरोग्य खात्यात अधीक्षक पदावर पुणे शहरात कार्यरत होते. त्यामुळे सवितामाईचे प्राथमिक व इंटर पर्यंतचे  शिक्षण पुण्यातच झाले. इंटर सायन्स परीक्षेत त्या परशुराम भाऊ महाविद्यालयातुन सर्वप्रथम आल्या होत्या. मुंबईच्या ग्रांट मेडिकल कॉलेज मधून १९३७ साली त्या एम.बी.बी.एस. झाल्या. पदवी पूर्ण झाल्यानंतर त्यांनी त्याकाळचे प्रसिद्ध फिजिशियन डॉ. माधवराव मालवणकर यांच्या खाजगी दवाखान्यात वैद्यकीय अधिकारी म्हणून कार्यरत झाल्या.याच काळात त्यांनी  एम.डी.ची  परीक्षा दिली. पण ऐन प्रॅक्टिकल परिक्षेच्या वेळी त्या टाईफाईड, डिहायड्रेशन, बॉईल्स अशा आजाराने खिळल्या व त्यांना पदव्युत्तर पदवी पूर्ण करता आली नाही. त्यानंतर त्यांनी गुजरात मधील एका मोठ्या सरकारी रूग्णालयात वैद्यकीय अधिकारी म्हणून नोकरी केली. परंतु तेथील हवामान न मानवल्यामुळे त्या नेहमी आजारी पडायला लागल्या. यामुळे शेवटी नोकरीचा राजीनामा देऊन त्या मुंबईला परतल्या व पुन्हा डॉ .मालवणकरांच्या दवाखान्यात ज्युनियर डॉक्टर म्हणून रुजू झाल्या. 


माईसाहेब व डॉ.बाबासाहेबांची पहिली भेट 


मुंबईतील विर्लेपार्ले भागात राहणारे अर्थशास्त्र विषयाचे विद्वान डॉ व्हि.के.राव हे डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांचे जवळचे मित्र होते. बाबासाहेब मुंबईत आले की आपल्या या मित्राकडे त्यांच्या घरी जात असत. १९४७ च्या मध्यात बाबासाहेब मुंबईत डॉ.राव यांच्या घरी आले होते. त्यावेळी डॉ.राव  यांच्या मुलीला ( जी सवितामाईची मैत्रीण होती )भेटण्यासाठी सवितामाईसुद्धा तेथे आली होती. बाबासाहेब त्यावेळी मजूर मंत्री होते. डॉ.राव यांनी औपचारिकता म्हणून सवितामाईंची ओळख बाबासाहेबांशी करून दिली. डॉ.राव यांच्या पत्नीलासुद्धा मधुमेह होता.त्यामुळे त्या डॉ. मालवणकर यांच्याकडे उपचार घेत होत्या. बाबासाहेबांनाही मधुमेह असल्यामुळे डॉ. राव यांनी त्यांना डॉ.मालवणकरांकडून ऊपचार घेण्याचा सल्ला दिला.त्यानुसार डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर उपचारासाठी डॉ.मालवणकरांच्या ह्युजेस रोड येथील दवाखान्यात गेले. यातूनच सवितामाईशी त्यांचा परिचय वाढला. 


डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांचा व सवितामाईंचा विवाह 


 डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांची प्रथम पत्नी रमाई यांचे २७ मे १९३५ रोजी क्षयरोगाने निधन झाले होते. त्यानंतर बाबासाहेबांनी पुन्हा विवाह न करण्याचा निश्चय केला होता.रमाईच्या निधनानंतर अनेक मित्रांनी व सहकाऱ्यांनी बाबासाहेबांना दुसरे लग्न करण्याचा सल्ला दिला होता. मात्र ते आपल्या निर्धारावर ठाम होते. १९४२ नंतर बाबासाहेबांना मधुमेह व उच्च रक्तदाब याचा आजार गंभीर प्रमाणात जाणवू लागला. यामुळे त्यांनी देखभाल करण्यासाठी व वेळेवर जेवण, पथ्यपाणी याची काळजी घेण्यासाठी एखादी नर्स ठेवावी असाही सल्ला त्यांच्या जवळच्या सहकाऱ्यांनी व डॉक्टरांनी दिला. मात्र तसे करणे लोकनिंदेला कारण ठरेल म्हणून त्यांनी या सूचनेस नकार दिला. पुढे १९४६-१९४७ मध्ये त्यांना मधुमेह, उच्च रक्तदाब याच्याबरोबरच संधिवाताचाही प्रचंड त्रास जाणवू लागला. यावेळी दिल्लीतील नामवंत डॉक्टरांनी त्यांना स्पष्टपणे सूचित केले की, त्यांनी वेळेवर वैद्यकीय उपचार, वैद्यकीय सल्ल्यानुसार आहार व पथ्यपाणी केले नाही तर ते फार काळ जगणार नाहीत. याच काळात त्यांनी मधुमेहाच्या व संधीवाताच्या दुखण्यासाठी डॉ. मालवणकर यांच्याकडे उपचार घेणे सुरु केले होते. येथे सवितामाईशी त्यांचा परिचय वाढला होता. त्याच्याशी झालेल्या परिचयातून व चर्चेतून बाबासाहेबांनी २५ जानेवारी १९४८ रोजी सवितामाईना पत्र पाठवून लग्नाची मागणी घातली. अशाच प्रकारे त्यांनी त्यांचे जवळचे सहकारी कमलकांत चित्रे यांना २० फेब्रुवारी १९४८ रोजी, दौलतराव गुणाजी जाधव यांना २१ फेब्रुवारी १९४८ रोजी व भाऊराव गायकवाड यांना १६ मार्च १९४८ रोजी पत्र पाठवून आपल्या निर्णयासंदर्भात माहिती दिली. सवितामाईंचा होकार मिळाल्यानंतर शेवटी सर्व सहकार्यांशी विचार विनिमय करून त्यांनी सवितामाईशी १५ एप्रिल १९४८ रोजी दिल्लीत नोंदणी पद्धतीने विवाह केला. बाबासाहेब व माईसाहेब यांच्या विवाहामागील पार्श्वभूमी व यासंदर्भात त्यांचा उपलब्ध असलेला पत्रव्यवहार पाहिला तर एक गोष्ट स्पष्ट होते की, सवितामाईंमध्ये असीम करुणा, सर्वोच्च त्याग करण्याची वृत्ती  आणि स्वतंत्रपणे उचित निर्णय घेण्याची क्षमता हे गुण ओतप्रोत भरलेले होते. सवितामाईंनी बाबासाहेबांशी विवाह करताना जात, वयातील अंतर, आजारपण यापैकी काहीही पाहिले नाही. विवाहाच्या वेळी बाबासाहेबांचे वय ५६ वर्षे व सावितामाईंचे वय ३६ वर्षाचे होते. सवितामाईंना हे ठाऊक होते की अनेक व्याधींनी ग्रस्त असलेल्या डॉ. आंबेडकरांना कधी काय होईल यांचा नेम नाही.त्यांच्याकडून अपत्यप्राप्तीची अपेक्षा नाही. तरीही त्यांनी जाणूनबुजून बाबासाहेबांशी विवाहाच्या प्रस्तावास मान्यता दिली. अशा प्रकारचा धीरोदात्तपणाचा निर्णय केवळ एक असामान्य स्त्रीच घेऊ शकते. त्यांच्याच शब्दात सांगायचे तर ‘ ....त्यांच्याबद्दल माझ्या मनात आत्यंतिक सहानुभूती निर्माण झाली. तत्क्षणी माझ्यातील डॉक्टर जागा झाला आणि मी विचार केला की,ही एक अशी गरजू व्यक्ती आहे की,जिला वैद्यकीय मदतीची अत्यंत जरुरी आहे.वैद्यकीय सल्ला,मार्गदर्शन,पथ्यपाणी व नियमित उपचार जर त्वरित दिले तर या व्यक्तीचे आयुष्य निश्चितच वाढणार आहे.माणुसकीच्या व डॉक्टरांच्या नितीधर्माशी इमान राखण्याच्या विचाराने मी मनोमन निश्चय केला की,या व्यक्तीसाठी आपण निश्चितच काहीतरी केले पाहिजे....”( डॉ. आंबेडकरांच्या सहवासात- डॉ. सविता आंबेडकर पृष्ठ ५१ )


भीमराव नावाच्या हिऱ्याचे कोंदण      


विवाहानंतर माईसाहेब म्हणजे भीमराव नावाच्या प्रखर तेजाने तळपणाऱ्या  हिऱ्याचे जणू कोंदण बनल्या. एक डॉक्टर म्हणून त्यांनी बाबासाहेबांच्या प्रकुतीची आपले सर्व वैद्यकीय कौशल्य पणाला लावून सर्वतोपरी काळजी घेतली. बाबासाहेबांनी हाती घेतलेल्या सामाजिक, राजकीय, धार्मिक कार्यक्रमांमध्ये माईसाहेब बाबासाहेबांची सावली म्हणून वावरत असत. सवितामाईंशी विवाह झाल्यानंतर बाबासाहेबांच्या हातून अत्यंत महत्वपूर्ण आणि त्यांना जागतिक स्तरावर कीर्ती, मन-सन्मान मिळवून देणारे कार्य घडले हे नाकारता येणार नाही. या ८-९ वर्षाच्या काळात त्यांनी राज्य घटनेचा मसूदा तयार करणे,राज्य घटनेतील कलमांवर उपस्थित केलेल्या आक्षेपांना व चर्चांना कायदामंत्री म्हणून उत्तरे देणे, हिंदू कोड बिल तयार करणे ,श्रीलंका व नेपाल येथे भरलेल्या जागतिक बौध्द परिषदांमध्ये सहभागी होऊन धम्माचा प्रचार प्रसार याविषयीचा आराखडा मांडणे,मिलिंद कॉलेजची स्थापना व इमारतींचे बांधकाम, फिलॉसॉफी ऑफ हिन्दुइजम,रिडल्स इन हिन्दुइज्म, रीव्होलुशन अँड कॉऊंटर रीव्होलुशन इन इंडिया, बुध्द की कार्ल मार्क्स, दि बुद्धा अँड हिज गोस्पेल, पाली व्याकरण, दि बुद्धा अँड हिज धम्म इत्यादी अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखाण याच काळात बाबासाहेबांच्या हातून घडले. भंडारा येथील पोटनिवडणुकीत पराभूत झाल्यानंतर खिन्न आणि उदास झालेल्या बाबासाहेबांना त्यांच्या धर्मांतराच्या प्रतिज्ञेची आठवण करून देऊन त्यांनी बौध्द धम्मात सामुहिक धर्मांतर करण्यास प्रोत्साहित केले. धर्मांतर सोहळ्यात अत्यंत मोलाची भूमिका त्यांनी बजावली. बाबासाहेबांच्या मृत्यूनंतर काही स्वार्थ प्रेरित लोकांनी माईंच्या विरोधात षड्यंत्रपूर्वक बदनामीची मोहीम उघडली. तरी त्यांनी या सर्व मोहिमेला धीरोदात्तपणे तोंड देऊन आपले कार्य  सुरु ठेवले. माईंच्या पाठपुराव्यामुळेच दिल्ली येथील डॉ. आंबेडकर इन्स्टिट्यूट ऑफ सोशल जस्टीस आणि डॉ. आंबेडकर नेशनल मेमोरियल कमिटी या दोन संस्थांची स्थापना १९६२ साली झाली. डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांचे अप्रकाशित साहित्य व ग्रंथ प्रकाशित करण्यासाठी त्यांनी स्वत:हून पिपल्स एजुकेशन सोसायटीचे अध्यक्ष डी.जी.जाधव यांच्याशी १९६५ साली पत्रव्यवहार करून त्यांची संमती मिळविली व तसे महाराष्ट्र शासनास कळविले.सन १९८१ साली स्वतःच्या ताब्यातील हस्तलिखिते डॉ. आंबेडकर लिखाण व भाषणे प्रकाशन समितीच्या सुपूर्द केली व वारस म्हणून त्वरित संमती  दिली. गुजरातेतील आरक्षण विरोधी आंदोलनाच्या वेळी आरक्षण समर्थनार्थ अनेक सभा संमेलनात त्या सहभागी झाल्या. दलित पँथर चळवळीत त्या सक्रीय होत्या. याशिवाय देशभरात अनेक विद्यापीठात, संसदेत आणि अन्यत्र वेळोवेळी हजर राहून त्यांनी बाबासाहेबांचे जीवन व कार्य या विषयावर विद्वत्तापूर्ण मार्गदर्शन केले. पुणे स्थित सिम्बाँयसिस संस्थेत माईसाहेबांच्या प्रयत्नाने व संस्थेचे प्रमुख डॉ.मुजुमदार यांच्या सहकार्याने डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर स्मारक ऊभे राहिले. माईसाहेबांच्या प्रयत्नां मुळेच महू येथील जन्मस्थळाची जागा बाबासाहेबांच्या स्मारकासाठी होऊ शकली. भारत सरकारने डॉ.बाबासाहेब आंबेडकरांचा मरणोत्तर `भारतरत्न' किताबाने गौरव केला,त्यावेळी डॉ.बाबासाहेबांच्या पत्नी म्हणून माईसाहेबांनी हा पुरस्कार राष्ट्रपतींच्या हस्ते स्विकारला. आयुष्याच्या अखेरीपर्यंत त्या विविध कार्यात मग्न राहिल्या. अशा या त्यागमूर्तीचे  वार्धक्यामुळे दिनांक २९ मे २००३ ला  निधन झाले. डॉ.बाबासाहेब आंबेडकरांची मालवती ज्योत प्रज्वलित करणाऱ्या या त्यागमुर्तीची समाजाकडून अत्यंत ऊपेक्षा आणी अवहेलना झाली. मात्र माईसाहेबांनी आपल्या कृतीतून एक आदर्श निर्माण केला. त्या आदर्शाची आणि त्यागाची जाणीव प्रत्येक आंबेडकरी अनुयायांनी ठेवली पाहिजे.


सुनील खोबरागडे

Thursday, 20 January 2022

चिनी प्रवासी 'हुएनत्संग' यांचे अलौकिक योगदान

 *चिनी प्रवासी 'हुएनत्संग' यांचे अलौकिक योगदान* Xuanzang : The Monk who Brought Buddhism East.


चिनी भिक्खू हुएनत्संग यांनी भारतामधील १४०० वर्षांपूर्वी केलेल्या प्रवासाचे मला नेहमीच अप्रूप वाटत आलेले आहे. ते भारतात आल्यामुळे त्यावेळची भारतातील बौद्ध धम्माची स्थिती आणि स्थळें यांची अचूक माहिती त्यांच्या प्रवासवर्णनातून मिळते. ते ज्या मार्गाने आले तो मार्ग पुढे सिल्क रोड म्हणून नावाजला गेला. त्यांना मायदेश सोडून जाण्यासाठी चीनच्या सम्राटाने परवानगी दिली नव्हती, म्हणून भारतात काही वर्षे घालविल्यानंतर परत मायदेशी जाताना ते खोतांन शहरात थांबले आणि त्यांनी चीनच्या सम्राटाला अगोदर पत्र पाठवले. त्यामध्ये त्यांनी लिहिले होते की "चीनमध्ये जो बुद्ध उपदेश पोहोचला होता तो अपूर्ण होता. त्याला पूर्णत्वाने जाणण्यासाठी मी अनेक संकटांना तोंड देऊन गुप्तरूपाने भारतात गेलो. मी विस्तृत वाळवंटातून, बर्फाने आच्छादलेल्या पर्वत शिखरावरून, अत्यंत धोकादायक घाटातून आणि भयंकर उष्ण हवेच्या प्रदेशातून प्रवास केला. निरनिराळ्या देशातील हजारो लोकांचे रीतिरिवाज आणि पेहराव पाहून तसेच अनेक संकटांना तोंड देऊन मी परत येऊन आपणांस वंदन करीत आहे. मी  ग्रद्धकुट पर्वत पाहिला. बोधीवृक्षाची पूजा केली. तथागतांच्या अनेक स्थळांचे दर्शन घेतले, जी आपल्या देशातील पूर्वी कोणीही पाहिली नव्हती. अशी पवित्र वाणी ऐकली की जी पूर्वी कोणीही ऐकली नव्हती. आता अनेक बौद्ध ग्रंथांचा अभ्यास करून अनेक ग्रंथ, बुद्धमुर्त्या आणि पवित्र बुद्धधातू घेऊन मी परत आलो आहे".


हे पत्र वाचल्यावर सम्राटाला फार आनंद झाला. चीनच्या राजधानीपर्यंत हुएनत्संग यांच्या प्रवासाची सर्व तजवीज करण्याची त्यांनी आज्ञा केली. ज्या दिवशी हुएनत्संग राजधानीत पोहोचले, त्यावेळी तेथे त्यांचे भव्य स्वागत करण्यात आले. तो दिवस राजधानीत सुट्टीचा दिवस मानण्यात आला. त्यांच्या स्वागतासाठी लोकांनी प्रचंड गर्दी केली. भिक्खू हुएनत्संग यांनी भारतातून आपल्याबरोबर अनेक मौल्यवान गोष्टी चीनमध्ये आणल्या.  यामध्ये तथागतांच्या धातूंचे १५० अंश, मगध राज्यातील सोन्याची बुद्धमूर्ती, चंदनाच्या बुद्धमूर्ती, चांदीच्या बुद्धमूर्ती,  ४ फूट उंच असलेली स्फटिका सारखी बुद्धमूर्ती, महायान पंथांचे २२४ ग्रंथ, स्थाविरवाद शाखेचे  व विविध सूत्रांचे १५ ग्रंथ, संम्मतीय शाखेचे १५ ग्रंथ, सर्वस्तिवादी शाखेचे ६७ ग्रंथ, धर्मगुप्त शाखेचे ४२ ग्रंथ , हेतूविद्याशास्त्राचे ३६ ग्रंथ, असे मिळून ६५७ ग्रंथ वीस घोड्यावरून आणले. तरीही प्रवासात अनेक ठिकाणी नदीपार करताना अनेक ग्रंथांना व वस्तूंना जलसमाधी मिळाली. 


हे सर्व पाहून चीनच्या सम्राटाने त्यांना दरबारात मानाची नोकरी बहाल केली. परंतु भिक्खू हुएनत्संग यांनी ती न स्वीकारता आपल्याबरोबर आणलेल्या ग्रंथाचे चिनी भाषेत भाषांतर करण्याचे काम सुरू केले. इ.स. ६४७ साली बोधिसत्वपिटक सूत्राचे, बुद्ध-भूमी शास्त्राचे, शतमुखी-धारणीचे आणि इतर काही ग्रंथांची भाषांतरे केली. इ.स. ६४८ साली त्यांनी आणखीन पंधरा ग्रंथांचे भाषांतर केले आणि सम्राटाच्या आज्ञेवरून "सी-यु-की" या नावाचे आपले प्रवासवर्णन लिहून काढले. सम्राट मरण पावल्यावर त्यांनी जीवनाच्या अंतापर्यंत आपला सर्व वेळ भाषांतराच्या कामात आणि धम्मप्रवचनाच्या कामात घालविला. त्यांनी एकूण ७४ ग्रंथांचा चिनी भाषेत अनुवाद केला. त्यातील एकट्या महाप्रज्ञापारमिता सुत्रातच दोन लाख सूत्रे आहेत. आपल्यानंतर हे भाषांतराचे काम अव्याहतपणे चालू राहावे म्हणून त्यांनी कर्तबगार आणि विद्वान भिक्खुंची शिष्यपरंपरा निर्माण केली.


इ.स. ६५२ साली भारतातील स्तुपाच्या आकारासारखा १८० फूट उंचीचा स्तूप त्यांनी उभारला. तेथे त्यांनी भारतातातून आणलेले मौल्यवान ग्रंथ, बुद्धप्रतिमा, बुद्ध धातू कुपी ठेवल्या. आयुष्याच्या अखेरीस इ.स. ६६४ मध्ये  एकेदिवशी सर्व सूत्रांचे पठण झाल्यावर मैत्रेय बोधिसत्वाची स्रोते गात त्यांनी शांतपणे डोळे मिटले. Xuanzang's travel to India not only gave new life to Chinese Buddhism, but also had an enduring effect on the Chinese literary imagination. म्हणून आज चीनमध्ये जो बहरलेला बुद्धिझम पहावयास मिळतो आहे तो फहियान, हुएनत्संग आणि इ-त्सीगं अशा त्यागी आणि ज्ञानी भिक्खुंमुळे आहे, हे ध्यानी असू द्यावे.


हुएनत्संग यांच्या भारत प्रवासावर आधारित सुंदर चित्रपटाची लिंक खालील प्रमाणे आहे. https://www.youtube.com/watch?v=ulDzLjz0wdw


---संजय सावंत (नवी मुंबई) www.sanjaysat.in

( संदर्भ : मा.श.मोरे यांचे 'तीन चिनी प्रवासी' )


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Tuesday, 18 January 2022

यवागू (खिचड़ी) का माहात्म्य

 🌷 यवागू (खिचड़ी) का माहात्म्य 🌷 


🙏 खिचड़ी खाने, दान करने के 10 दिव्य लाभ 🙏


एक समय भगवान वाराणसी में साढ़े बारह सौ के विशाल भिक्षु संघ के साथ विहार कर रहे थे। वह संघ के साथ अन्धकविन्द की ओर चारिका कर रहे थे। 


बुद्ध प्रमुख भिक्खु संघ को भोजनदान कर पुण्यलाभ अर्जित करने के धम्म लोभ में अनेक समर्थ लोग तेल, नमक, चावल व अन्य खाद्य पदार्थ गाड़ियों में लाद कर संघ के पीछे-पीछे चल रहे थे कि जब उन्हें अवसर मिलेगा तो वह भी पावन संघ को भोजनदान करेंगे। एक श्रद्धालु उपासक भी इसी प्रत्याशा में पीछे-पीछे लगा था। 


भगवान अपने संघ के साथ अन्धकविन्द पहुँच गये, मगर उस उपासक की बारी नहीं आयी। घर से दूर हुए उसे दो महीने हो चुके थे। वह श्रद्धालु उपासक अपने घर का अकेला व्यक्ति था जिस पर पूरे परिवार का दायित्व था। उसे घर की चिन्ता भी सताने लगी, काम-धाम की याद आने लगी। 


उसने अपने मन में विचार किया- जिन लोगों को भोजन कराने का अवसर मिल पा रहा है, उन्हीं को परोसते देखूँ, जिस सामग्री का भोजन में अभाव हो वह व्यवस्था ही मैं कर दूँ, इससे मुझे बीच में ही भोजनदान का पुण्यलाभ मिल जाएगा। 


यह सोच कर उसने अन्य श्रद्धालुओं का भोजन देखा और पाया कि भोजन में मिष्ठान्न नहीं है, यवागू अर्थात गीली खिचड़ी (दाल+चावल की पतली खिचड़ी) नहीं है। बड़े उत्साहित मन से भागता हुआ वह भगवान के उपस्थापक आनन्द के पास गया। 


उनसे अपनी स्थिति स्पष्ट की: "बुद्ध प्रमुख भिक्खु संघ को भोजनदान देने की प्रत्याशा में दो महीने से संघ के पीछे-पीछे चल रहा हूँ, लेकिन मेरी बारी अभी तक नहीं आयी है। मैं घर का अकेला हूँ। काम-धाम छोड़ कर पुण्यलाभ की प्रत्याशा में भगवान के पीछे-पीछे चल रहा हूँ। पता नहीं मेरी बारी कब आएगी। 


इसलिए मैंने सोचा कि जो लोग भोजन कराने का अवसर पा गये हैं, उन्हें परोसते देखूँ, भोजन में जिस खाद्य सामग्री का अभाव हो, वह व्यवस्था ही मैं कर दूँ, मैंने पाया कि भोजन में यवागू और मिष्ठान्न में मधुपिण्ड (लड्डू) कोई नहीं परोस रहा है। यदि गीली खिचड़ी और लड्डू तैयार कराऊं तो क्या भगवान स्वीकार करेंगे?" 


आनन्द ने कहा- उपासक! भगवान से पूछ कर बताता हूँ... यह कह कर आनन्द ने सारा विवरण जाकर भगवान को बताया। करुणामय भगवान ने उस श्रद्धालु उपासक की परिस्थिति को समझा कि वह अपना काम-धाम छोड़ कर दो महीने से भोजनदान की प्रत्याशा में पीछे-पीछे लगा है। 


भगवान ने आनन्द से कहा- आनन्द! उपासक से कहो कि वह तैयारी करे... आनन्द ने आकर उपासक से कहा- उपासक! भगवान ने अनुमति दे दी है। तुम जाओ, खिचड़ी और लड्डू तैयार कराओ। श्रद्धालु उपासक की श्रद्धा से आँखें छलक आयीं। आखिर दो महीने के बाद उसे भगवान को भोजनदान का अवसर मिल पाया था। उसकी आँखों से खुशी के आंसू छलक पड़े थे। 


साढ़े बारह सौ के विशाल भिक्खु संघ के लिए उपासक ने प्रभूत मात्रा में यवागू और मधुपिण्ड तैयार कराए। संघ के भोजन समाप्ति से पूर्व उसने भगवान के सम्मुख एक थाल में खिचड़ी और लड्डू परोस कर स्वीकार करने की प्रार्थना की। उस समय ऐसा विनय था कि भोजन शुरू होने से पूर्व और समाप्त होने के बाद कुछ भी खाद्य स्वीकार करना निषिद्ध था। 


उपासक द्वारा खिचड़ी और लड्डू परोसने पर संघ भगवान को देखने लगा। खिड़की को पालि भाषा में यवागू और लड्डू को मधुपिण्ड कहते हैं। यवागू वास्तव में गीली खिचड़ी होती है जिसे चिकित्सक प्रायः रोगियों को संस्तुत करते हैं। वास्तविक अर्थों में खिचड़ी खाद्य नहीं बल्कि पेय भोज्य है। उपासक द्वारा भगवान के सम्मुख यवागू और मधुपिण्ड परोसा गया। 


भगवान ने यह दान स्वीकार किया और भिक्खुओं को भी अनुमति दी- भिक्खुओं! गृहण करो...। तब से संघ में भोजन समाप्ति के बाद भी पेय और मिष्ठान्न स्वीकार करने का विनय बना। भोजन की समाप्ति पर भगवान द्वारा थाली से हाथ खींच लेने तथा हाथ धोने के उपरान्त वह उपासक भगवान की धम्म देशना और अनुमोदन-आशीष की प्रत्याशा में एक ओर हाथ जोड़ कर बैठ गया। 


उस दिन भगवान ने खिचड़ी की महिमा पर ही अपना उपदेश दिया। भगवान ने कहा: "उपासक! खिचड़ी के दस महात्म्य हैं। दस गुण हैं :- 


1. खिचड़ी देने वाला आयु का दाता होता है।

2. खिचड़ी देने वाला वर्ण, रूप का दाता होता है।

3. खिचड़ी देने वाला सुख का दाता होता है।

4. खिचड़ी देने वाला बल का दाता होता है।

5. खिचड़ी देने वाला प्रतिभा का दाता होता है।

6. उसकी दी खिचड़ी से क्षुधा शान्त होती है।

7. उसकी दी खिचड़ी प्यास का शमन करती है।

8. उसकी दी खिचड़ी वायु को अनुकूल करती है।

9. खिचड़ी पेट को साफ करती है।

10. खिचड़ी न पचे को पचाती है। 


"खिचड़ी के ये दस गुण हैं। जो संयमी, श्रद्धालु दूसरे के दिये भोजन करने वालों को समय पर सत्कारपूर्वक यवागू का दान करता है उसे ये दस फल मिलते हैं :- 


1. आयु

2. रूप-वर्ण 

3. सुख 

4. बल

5. प्रतिभा उत्पन्न होती है।

6. क्षुधा शान्त होती है।

7. प्यास शान्त होती है।

8. वायु विकार नहीं होता, वायु अनुकूल रहती है।

9. पेट का शोधन होता है।

10. पाचन ठीक रहता है।" 


भगवान ने यह भी कहा कि यह औषधि तुल्य है। दिव्य सुख की चाह रखने वाले और सौभाग्य की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को खिचड़ी का दाता होना चाहिए। इस प्रकार भगवान बुद्ध ने द्वारा खिचड़ी का माहात्म्य बताया ।

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भैषज्य-स्कंधक । 

विनय पीटक ।। 


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         ✺भवतु सब्ब मंङ्गलं✺

         ✺भवतु सब्ब मंङ्गलं✺

         ✺भवतु सब्ब मंङ्गलं✺

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Monday, 17 January 2022

दान आणि धम्मदान

 💙 *दान आणि धम्मदान* 💙      
                        
*सब्बदानं धम्मदानं जिनाति*   
                      *सब्बं रसं धम्मरसो जिनाति*                           
                        *सब्बं रतिं धम्मरति जिनाति।*                          
               *तण्हक्खयो सब्बदुक्खं जिनाति।।*          
                      
      धम्मदान सर्व प्रकारच्या दानाला जिंकिते; धम्मरस सर्व प्रकारच्या रसांना जिंकिते; धम्मरती सर्व प्रकारच्या रतीस जिंकिते; आणि तृष्णेचा क्षय सर्व दुःखाना जिंकितो.  *सब्बदानं धम्मदानं जिनाति*  बुध्द असे म्हणतात सर्व दानात धम्माचे दान श्रेष्ट आहे, ते ज्ञान केवळ तथागत देत असतात.  धम्मदान:- धम्मदान म्हणजे तथागतांच्या मुखातून निघालेले शब्द जसेच्या तसे त्यात कोणताही बदल न करता लोकांच्या हितासाठी,कल्याणासाठी,मंगलासाठी आणि रक्षणांसाठी सांगणे म्हणजे धम्मदान होय. आपण सामान्य माणसे म्हणजे बुध्द तत्वज्ञानाला न जाणनारी माणसे, बुध्द वचनांची विडंबना करतो, आपण येवढ्या सहजतेने चुका करतो कि त्याचे आपणास  भान राहत नाही, आपण ऐखादा कार्यक्रम घेण्यासाठी पैशे जमा करतो, आणि अमुक अमुक व्यक्ती कडुन धम्मदान मिळाले, धम्माचे दान मिळाले असे म्हणतो, म्हणजे आपण पाप करतो, उदा: ऐखादा गायक गायिका बुध्दांचे, बाबासाहेंबाचे वर्णन करतो, तेव्हा ऐखादा सामान्य, दारु पिणारा, बेअक्कल असलेला माणुस त्यांना शंभर, पाचशे, हाजार, दहा हजार देतो, तेव्हा तेव्हा आपण सांगतो की ऐखाद्या व्यक्ती कडुन धम्मदान मिळाले, धम्माचे दान मिळाले असे म्हणतो, म्हणजे ही धम्माची विडंबना नव्हे का? हे पाप नव्हे का?  ऐखादा माणुस म्हणतो की धम्मदान दिले. बुध्द असे सांगतात की सर्वात श्रेष्ट दान धम्माचे दान आहे, म्हणजे आपण पाप करतो, ही धम्माची विडंबना आहे आणि हे महाचुक/ महापाप आहे. हे बुध्दवचन जाणुन न घेतल्यामुळे आपण त्यांची विडंबना करीत आहोत. आम्ही जाणुन का घेत नाही? आम्हाला ते वारंवार  सांगितल्याचा प्रयत्न केला असताही आपण जाणुन घेत नाही, कारण आम्हाला आमच्या शरीरावर संयम ठेवता आला नाही, वाणीवर संयम ठेवता आला नाही, मनावर संयम ठेवता आला नाही, या अम्हाला मध्ये जो माणुस स्वतःला पहात असेल, त्याला उजागर होत असेल अरे! हो" मी अनेक वेळा बुध्दाचा उपदेश ऐकला, अनेकदा भन्तेजी द्वारा बुध्दाचा  उपदेश ऐकला, तरीही मला तो का समजत नाही? तर, बुध्द सांगतात की *"किच्छं सध्दम्मसवणं किच्छो बुध्दांनउप्पादो "* सद् धम्माचे श्रवण करणे दुर्मिळ आहे, तर ते केवढे दुर्मिळ आहे, तर ते जेवढे कठीण बुध्दाचे उत्पन्न होणे. जेवढे कठीण, दुर्लभ, दुर्मिळबुध्दाचे उत्पन्न होणे. तेवढे कठीण, दुर्लभ, दुर्मिळ आहे सदधम्म देशना श्रवण करणे कठीण आहे. बुध्दाचे उत्पन्न होणे कठीण आहे, दुर्लभ आहे दुर्मिळ आहे कश्यावरुन तर स्वविस हजार वर्षात स्वविस हजार बुध्द निर्माण झाले असते, पण येवढ्या दिर्घ कालावधी मध्ये दुसरा कोणीही बुध्द झाला आहे असे कोणीही ऐकले नाही त्यामुळे ते कठीण आहे, हे सहज पणे सिध्द होते आणि ते कठीण आहे. सदधम्म श्रवण करणे म्हणजे केवळ कानाने धम्म ऐकणे नव्हे, शब्दरुपाने ऐकल्यानंतर त्यांला चित्तामध्ये स्थापन केले पाहीजे, त्या आपल्या चित्तामध्ये स्थापित केलेल्या, सदधम्म देशनेला सतत आणि  सतत चिंतनात आणले पाहीजे, क्षणोक्षणी स्मरण केले पाहीजे, तेवढ्याने धम्म समजत नाही तर त्या स्मरण केलेल्या सदधम्माचे क्षणो क्षणी तंतोतंत आचरण केले पाहीजे, अनुसरण केले पाहीजे, जेव्हा तो अनुसरण करेल तेव्हा त्यांच्या लक्षात येईल की मी तेव्हा हा बुध्दाचा उपदेश ऐकला होता, त्यांचे  मी अनुसरण करत आहे, त्यामुळे तो आनंदीत होईल, समाधानी होईल, प्रसन्न होईल, त्याचे कल्यांन होईल आणि तेव्हा त्याला वाटेल मी बुध्दाचा उपदेश म्हणजे धम्म खरोखरी ऐकला,  मग त्यास बुध्द म्हणतात, त्यांने सदधम्म श्रवण केला. यालाच धम्माचे दान म्हणतात.
 *दान :- दान म्हणजे दुसऱ्याच्या सुखासाठी, आनंदासाठी, समाधानासाठी आपल्याजवळ जे असेल ते निस्वार्थी भावनेने परतफेडीची अपेक्षा न करता उदार अंत:करणाने देणे म्हणजे दान होय.* अश्या प्रकारे दान आणि धम्म दानामध्ये  फरक असतो, अर्थिक दान , श्रम दान, शरीर दान .....असे सर्व दानाहुन धम्म दान हे सर्व श्रेष्ट आहे त्यामुळे कोणीही पावती बुक वर, विहारातील दान पात्रावर कधिही धम्मदान असे लिहु नये. 
जय भिम नमो बुध्दाय...        
   🖋 अनुप्रिया शेळकिकर( भारतीय बौध्द महासभा उपासक, बाविस प्रतिज्ञा अभियान मुख्य प्रचारक. )

आयुर्विज्ञानाचे कोडे

 ज्ञानाची दिवाळखोरी ..... आयुर्विज्ञानाचे कोडे


एक गैरसमज अनेक शतकांपासून पद्धतशीरपणे भारतात आणि परदेशात पसरवला गेला आहे. तो हा की भारतातील आयुर्वेदशास्त्र अति प्राचीन असून, शुश्रुत आणि चरक या दोन महाविद्वानांनी हे ज्ञान समस्त जगाला दिले आहे. यातील आयुर्वेद म्हणजेच "चिकित्सा आणि नैसर्गिक औषधे" हे शास्त्र जरी प्राचीन होते तरी त्याकाळात ते पूर्ण विकसित नव्हते.


ब्राह्मणी परंपरा असे मानते कि ब्रह्मदेवाने आयुर्विज्ञान हे दक्षप्रजापतीला दिले आणि ते त्याने अश्विनीकुमारांना शिकविले आणि त्यांनी ते ज्ञान इंद्राला दिले. तेथून ते धन्वंतरीची रूपात असलेल्या काशी नरेश दिवोदासला मिळाले जे त्याने सुश्रुतला दिले आणि मग सुश्रुताने, संहिता लिहून जगासमोर आणली. इंद्राने हेच ज्ञान नंतर अत्रेय पुनर्वसू यांना दिले जे त्यांनी अग्निवेशाला दिले आणि अग्निवेशाने ते चरकला शिकविले ज्याने नंतर चरक संहिता लिहिली. 


विशेष म्हणजे वैदिक काळात अशी मान्यता होती कि शाररिक व्याधी या जादूटोणा, राक्षसी शक्ती किंवा तंत्रमंत्र याने होते! मग जर व्याधी अशा काल्पनिक कारणाने होत असेल तर त्यांचा उपचार नैसर्गिक औषधाने कसा होऊ शकतो?


केनेथ झिस्क त्यांच्या "Asceticism and Healing in Ancient India" या पुस्तकात लिहितात की अशा प्रकारच्या "भाकड कथा" भारतीय वैदिक परंपरेत दिसतात.  


पालि भाषेत "चर" म्हणजे फिरणारा किंवा "चंक्रमण" करणारा असा होतो. बौद्ध धम्मात असे चंक्रमण करणारे बौद्ध भिक्खू असत हे सर्वांना माहीत आहेच. चरक या शब्दाचा मूळ धातू चर आहे.


देबीप्रसाद चटोपाद्यांनुसार हे Science and Society in Ancient India या पुस्तकात लिहितात की "चरक संहिता"चा अर्थ त्याकाळात भटकंती करणारे बौद्ध श्रमण यांनी हे ज्ञान एकत्रित केले आहे असा होतो. सुश्रुत यांच्याबद्दल देखील कुठलीही ऐतिहासिक माहिती उपलब्ध नसून, अभ्यासकांच्या मते अनेक जणांनी मिळून ही संहिता लिहिली आहे. म्हणजेच शुश्रुत नावाचा कोणी व्यक्ती झालेला नाही, तर ते एक काल्पनिक पात्र तयार केले गेले आहे!


१९०७ मध्ये सुश्रुत संहितेचे इंग्रजीत संपादन करणारे कविराज कुंजलाल भीषगरत्न लिहितात कि "सुश्रुत संहितेची रचना ही माध्यमिक बौद्ध आचार्य नागार्जुन यांनी लिहिलेल्या एका संहितेचा आधार घेऊन लिहिलेली आहे". सुश्रुतबद्दल आमच्याकडे कुठलाही ठोस पुरावा नाही असे कविराज कुंजलाल स्पष्ट लिहितात. याचाच अर्थ, आज जो शुश्रुत संहिता ग्रंथ आहे, त्याचे मूळ लिखाण बौद्ध आचार्य नागार्जुन यांनी लिहिले आहे आणि नंतरच्या काळात कोणी तरी या ग्रंथाची नक्कल करून, शुश्रुत हे काल्पनिक नांव दिले. म्हणजेच बौद्ध आचार्य नागार्जुन यांना कुठलेही credit मिळू नये म्हणून हा सगळा खटाटोप!


ग्रीक इतिहासकार मेगॅस्थनिस याने देखील श्रमण आणि त्यांच्या सखोल वैद्यकीय ज्ञानाबद्दल लिहिले आहे. बौद्ध भिक्खू जेव्हा लोकांना धम्म सांगत, तेव्हा लोकांच्या शाररिक व्याधींसाठी देखील औषधोपचार करीत. याचाच अर्थ आयुर्विज्ञानाची खरी बैठक बुद्धकाळात झाली आणि बौद्ध भिक्खुंनी या ज्ञानात संशोधन करीत, अनेक नवीन उपाय शोधले जे त्यांनी लोकांच्या उपयोगासाठी आणले. याचे मूळ कारण म्हणजे बुद्धांनी भिक्खू संघाला सांगितले होते की 'माझी सेवा करायची असेल तर आजाऱ्यांची शुश्रूषा करा'. 


जसे आधुनिक काळात डॉक्टर Hippocratic Oath घेतात तशीच "वेज्जावतपद" हे बौद्धकाळातील वैद्यांसाठी प्रतिज्ञा होती जिच्या सात मुद्द्यात रुग्णांची सेवा करण्याची प्रतिज्ञा आहे.


बुद्धविचारांसोबत उत्तोरोत्तर आयुर्विज्ञानाचा प्रसार देशात व परदेशात वाढत गेला. यावर अनेक ग्रंथ लिहिले गेले आहेत. "अष्टांगहृदय" या प्रसिद्ध ग्रंथात, ग्रंथकाराने भ.बुद्धांना सर्वात आधी वंदन केले आहे -


रागादिरोगान् सततानुषक्तानशेषकायप्रस्रुताशेषान् ।

औत्सुक्यमोहारतिदाञ् जघान यो पूर्ववैद्याय नमो स्तु तस्मै ।।


म्हणजेच जगातील प्राणिमात्रांच्या शरीराला मनामध्ये प्रमाद अस्वस्थता उत्पन्न करणाऱ्या रागजन्य, कामक्रोधादि रोगांचे ज्यांनी समूळ उच्चाटन केले त्या वैद्य शिरोमणी तथागत बुद्धाला म्हणजेच अपूर्व (अद्भुत) वैद्याला मी नमस्कार करतो.


बौद्धकाळात विकसित झालेले आयुर्विज्ञान, ८व्या ते १०व्या शतकानंतर वैदिकपूर्व काळाशी जोडण्यात आले आणि हे ज्ञान ब्रह्मदेवाने, शुश्रुत आणि चरक यांना दिले असा खोडसाळपणा करण्यात आला.


भारतीय आयुर्विज्ञान इतिहासात केवळ जीवक यांचा काळ तसेच चिकित्सा आणि निदान पद्धतीबद्दल अचूक माहिती मिळते. जगातील सर्वात प्राचीन मेंदूची आणि पोटाची शस्त्रक्रिया आचार्य जीवक यांनी केल्याचा उल्लेख आहे. आचार्य जीवकांनी संशोधित केलेल्या अनेक चिकित्सा व औषधपद्धती नंतरच्या काळात इतरांच्या नावावर प्रसिद्ध झाल्या. 


जगभरातील आयुर्विज्ञान शाखेत गौरविलेले जीवकांना मात्र भारतातील आजच्या आयुर्वेदाच्या शिक्षणात कुठलेही स्थान देण्यात आले नाही ही इथल्या 'आयुर्वेदाचार्यांची' मानसिक दिवाळखोरी नव्हे काय?


म्हणूनच अभ्यास, संशोधन, लेखन आणि प्रसार गरजेचा आहे.


अतुल मुरलीधर भोसेकर

9545277410

Sunday, 16 January 2022

अश्वघोष

*_अश्वघोष_*


प्रवचन देण्याची पध्दती तथागत बुद्धांनी शिकवली व विकसीत केली. पण प्रवचन देण्याच्या प्रकारामध्ये केलेले बदल भिक्खूंच्या नाविण्यपूर्ण प्रयोग करण्याच्या क्षमतेची ग्वाही देतात. 

'धर्माचे शिक्षण देण्यासाठी नाटकाचा उपयोग बौद्धांनी प्रथम केला. भारतातील सर्वात पहिले नाटक हे बौद्ध विषयाशी संबंधित आहे.'

*_भारतातील प्रथम नाटककार म्हणून "अश्वघोष" विश्वविख्यात आहेत._* 

*_'अश्वघोष, आर्यदेव, नागार्जुन आणि कुमारलब्ध या चार सूर्यांनी जगाला प्रकाशित केले आहे.' अशा शब्दात चिनी प्रवासी हयू-एन-त्सँगने अश्वघोषांबद्दल आपला आदर प्रकट केला आहे. चीनच्या महायानी आचार्य परंपरेप्रमाणे अश्वघोषांचा बारावे आचार्य म्हणून उल्लेख केला जातो. महायानी प्रथेप्रमाणे त्या सर्वांचा 'बोधिसत्व' असा आदरार्थी केला जातो._* 

अश्वघोषांच्याबद्दल एका तिबेटी ग्रंथात लिहिले आहे, 

_'असा कोणताच प्रश्न नव्हता, की ज्याचे ते योग्य उत्तर देऊ शकत नसत... झंझावती वारा ज्याप्रमाणे सुकलेल्या वृक्षांना मुळापासून सहजगत्या उखडून टाकतो, त्याचप्रमाणे ते आपल्या प्रतिस्पर्ध्यांचा वादविवादात सहजगत्या पराभव करीत असत.'_


अश्वघोषांचा जन्म साकेत येथे, म्हणजेच हल्लीच्या अयोध्या येथे झाला. त्यांच्या आईचे नाव सुवर्णाक्षी असे होते. विद्याभ्यासात त्यांनी लहानपणीच इतकी प्रगती केली होती की, त्याकाळी ज्ञात असलेल्या सर्व शास्त्रांचे ज्ञान त्यांना अवगत झाले होते. 

ते एक कुशल संगीतकार होते. आपल्या संगीत मंडळात स्त्री आणि पुरुष कलाकारांना बरोबर घेऊन, स्वतःनिर्माण केलेले संगीत ते गावोगावी म्हणून दाखवीत असत.

_अश्वघोष सम्राट कनिष्काच्या समकालीन होते, इसवी सनापूर्वी ५० सालापासून इसवी सन १०० पर्यंतच्या मधल्या काळात ते होऊन गेले असावेत. *सम्राट कनिष्काच्या काळात काश्मीरमध्ये जी चौथी धम्मसंगीती भरली होती, तिचा उपसभापती होण्याचा मान अश्वघोषांनाच मिळाला होता. तेथे त्रिपिटकांवर जी सुत्तविभाषा, विनयविभाषा आणि अभिधम्म विभाषा अशी भाष्य लिहिली गेली, त्या कार्यांत अश्वघोषांचा सिंहाचा वाटा होता.*_ 

_"बुद्धचरित" हे महाकाव्य लिहिणारा महाकवी म्हणून अश्वघोष विश्वविख्यात आहेत. त्याशिवाय त्यांनी अनेक काव्य व नाटके लिहिली आहेत._ 

_*'बुद्धचरित' हे महाकाव्य अत्यंत प्रासादिक भाषेत, पण त्याचबरोबर अत्यंत संयम राखून लिहिले गेले आहे. गौतम बुद्धांच्या जीवनावर लिहिलेले ललितविस्तार हे काव्य बुद्धचरिताच्या किती तरी अगोदर लिहिले गेले होते. पण त्यात अनेक ठिकाणी कविकल्पनेच्या भराऱ्या असल्यामुळे ते बुद्धांच्या चरित्र वास्तवतेला धरुन आहे असे वाटत नाही. उलटपक्षी बुद्धचरितातील गौतम बुद्धांचे जीवनचरित्र त्रिपिटकातील बुद्धांच्या जीवन चरित्राशी मिळतेजुळते आहे. या महाकाव्याच्या चिनी आणि तिबेटियन भाषेत भाषांतरात प्रत्येक २८ अध्याय आहेत. सुप्रसिद्ध चिनी प्रवासी इत्सिंग हा सातव्या शतकात चीनच्या पूर्व किनाऱ्यावरुन जावा सुमात्रामार्गे भारतात आला. तो म्हणतो की, जम्बुद्वीपाच्या पाचही भागात आणि दक्षिण समुद्रातील सर्व देशात बुद्धचरितांचे सर्वत्र वाचन आणि गायन होत असते.*_

एक महाकवी म्हणून आणि सोप्या भाषेत धम्म समजावून सांगणारे प्रभावी धम्म प्रचारक म्हणून अश्वघोषांची किर्ती सर्वत्र पसरली होती. त्यांच्या काव्याचे अनुकरण भारतात इतर बौद्ध आणि अबौद्ध कवींनी सर्रासपणे केले आहे. मुळ संस्कृत भाषेत सापडलेल्या त्यांच्या १७ अध्यायांपैकी फक्त १३ अध्याय अस्सल आहेत असे मानले जाते. पण्डित हरप्रसाद शास्त्रींनी नेपाळ दरबाराच्या ग्रंथ भाण्डारातून तेरा पूर्ण आणि चौदावा अर्धा अध्याय शोधून काढला होता. 

_*"सारिपुत्र प्रकरण" हे अश्वघोषांचे नऊ अंकी नाटक आहे. मध्य आशियातील तुर्फान येथे या नाटकाच्या मुळ प्रतिंची काही पाने सापडली आहेत. संपूर्ण लिहिलेले नाटक अजुनही सापडले नाही, पण त्याचे चिनी भाषेतील भाषांतर अस्तित्वात आहे. श्री. हडसन यांना १८२९ साली नेपाळमध्ये अनेक बौद्ध ग्रंथ सापडले. त्यात अश्वघोषांचे 'वज्रसूची' हा एक ग्रंथ होता. श्री. हडसन याने त्या ग्रंथाचे इंग्रजीत भाषान्तर करुन Vajrasuchi or Diamond Needle अशा नावाखाली ते १८३१ साली छापले. राॕयल एशियाटिक सोसायटीने ते Disputation respecting caste या नावाखाली पुनर्मुद्रित केले. त्या काळी अश्वघोषांच्याबद्दल भारतात फारशी माहिती नव्हती. नेपाळमधील काही लोकांना 'अश्वघोष हा एक महापण्डित होता. त्याने बुद्धचरित काव्य आणि नन्दीमुखसुघोष, अवदान आणि इतर काव्ये लिहिले' एवढीच माहिती होती.*_

अश्वघोष हे कालिदास, भारवि, माघ, भर्तृहरी, दण्डिन्, भास इत्यादी कवींच्या अगोदर झालेले महाकवि आहेत. अश्वघोषांच्या नाटकात जे तंत्र त्यांनी वापरले आहे, तेच तंत्र कालिदास, भास, भारवि वगैरे कविंनी वापरलेले आहे. 

अश्वघोष फक्त कवी नव्हते, तर ते एक अगाध बुद्धीचे तत्त्ववेते होते. बुद्धचरित, सौन्दरानन्द आणि महायान श्रद्धोत्पद शास्त्रात त्यांनी सांगितलेल्या धम्मतत्त्वांवरुन त्यांच्या अगाध बुद्धिमत्तेचे दर्शन घडते. त्यांच्या मृत्युनंतर सहाशे वर्षांनी सुद्धा त्यांचे ग्रंथ सर्व भारतात आणि दक्षिण समुद्रातील देशात नियमितपणे वाचले जात असत, अशी ग्वाही इ-त्सिंगने दिली आहे. चिनी, तिबेटी आणि जपानी भाषेत त्यांच्या ग्रंथांची भाषान्तरे झाली आहेत. मध्य आशियातील तुर्फान, खोतान आणि इतर ठिकाणी त्यांच्या संस्कृत भाषेतील ग्रंथांच्या प्रती मिळाल्या आहेत.

_निर्वाणासारखा गहन विषयही लोकांना समजेल अशा सोप्या भाषेत अश्वघोष कशा प्रकारे सांगत असत हे या गाथांवरुन लक्षात येईल.._

दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नवाननिं गच्छति नान्तरिक्षम् !

दिशं न कांचिद् विदिशं न कांचित् स्नेचक्षत्केवलमेति शांतिम् !!

एवं कृती निर्वृतिमभ्यपेतो नवावनिं गच्छति नांतिरिक्षम् !!

दिशं न कांचिद् विदिशं न कांचित्क्लेशक्षयात् केवल मे नि शांतिम् !!


संदर्भः बुद्धधम्माचे संदेशवाहक.

Thursday, 13 January 2022

उपोसथ म्हणजे काय?

 *_उपोसथ म्हणजे काय?_*


 _उपोसथ  म्हणजे उपास-तापास करणे किंवा केवळ उपाशी राहणे नव्हे. *उपोसथात धम्म जीवनाच्या आठ मूलभूत शीलांचे पालन करीत आपल्यातील  सत्यतेचा  शोध घेत राहावयाचे असते.* त्यातून आपल्यातील गुणदोषाचे दर्शन घ्यायचे असते आणि त्या अनुभूतीतून दोषांचे निवारण करून गुणांचे संवर्धन करायचे असते. बाह्य जगातून घडणाऱ्या कुसंस्कारांना ओळखून त्यातून बाहेर पडण्याचा प्रयत्न करायचा असतो. उपासक-उपासिका म्हणून सांगितलेल्या आठ सद्गुणांचा विकास करण्याचा प्रयत्न करायचा असतो. प्रथम बुद्धविहारात जाऊन किंवा स्वतःचे घरी योग्य त्या भिक्खू भिक्खुनीकड़े किंवा ज्येष्ठ आचरण शील उपासक-उपासिके  कड़े अट्ठसील उपोसथसील  'देण्याची' 'याचना' (विनंती) करायची असते. जर असे कोणी उपलब्ध नसेल तर स्वतःच उपोसथसील घ्यायचे असते. यात प्रथम क्षमायाचना (खमापना) करायची असते.  ती अशी :_

ओकास वन्दामी भन्ते द्वारत्तयेन ( मया) कतं सब्ब अपराधं खमतु में भन्ते ।

दुतियं पि ओकास वन्दामी भन्ते द्वारत्तयेन ( मया) कतं सब्ब अपराधं खमतु में भन्ते ।

ततियं पि ओकास वन्दामी भन्ते द्वारत्तयेन ( मया) कतं सब्ब अपराधं खमतु में भन्ते ।

*_अर्थात, भन्ते अनुज्ञा असावी, वंदन करतो. माझ्या हातून माझ्या शब्दाने किंवा विचाराने एखादा अपराध घडलेला असेल तर त्याबद्दल मला क्षमा करावी, ही विनंती._*

 दुसऱ्यांदा...  तिसऱ्यांदा...

नंतर तीन वेळा याचना येणेप्रमाणे करायची:

 " ओकासा अहं भन्ते,

तिसरणेन सह अट्ठद्मसमन्नागतं उपोसथसील धम्मं याचामी।

अनुग्गहं कत्वा सीलं देथ में भन्ते।

दुतियं पि...।, ततियं पि...।"

 *_अर्थात, भन्ते अनुज्ञा असावी, तिसरणांसह  अष्टविध उपोसथ  सीलधम्म देण्याची विनंती करत आहे. कृपा करून मला उपोसथ  सीलधम्म द्यावा._*

 दुसऱ्यांदा...  तिसऱ्यांदा...

*_(टीप: जर गृहस्थ उपासकाला विनंती करायची असेल तर 'भन्ते' च्या ऐवजी अहं सिरीमान असे म्हणावे.  "ओकास वन्दामी सिरीमान " असे म्हणावे. उपासीकेला विनंती करायची असेल तर 'अहं भगिनी 'असे म्हणावे. 'ओकास वन्दामी भगिनी' असे म्हणावे.)_* मग उपोसथ

सीलधम्म देणारे म्हणतील: 

"यमहं वदामि तं वदेथ।" (किंवा वदेही) म्हणजे " मी जसे म्हणेन तसे म्हणा" असे बोलतील.

 त्यावर "आम भन्ते !" (गृहस्थास "आम सिरीमान" उपसीकेस "आम  भगिनी!" म्हणजे होय म्हणून होकार द्यावा.

 मग तीन वेळा " नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स " असे म्हटले जाईल, त्याप्रमाणे प्रत्येक वाक्य त्यांच्या पाठोपाठ म्हणावे. याचा अर्थ त्या भगवान अरहंत सम्यक संबुद्धा ला नमन असो " 

मग त्रिसरणगमन तीन वेळा म्हटले जाईल. तसे म्हणायाचे.

" बुद्धं सरणं गच्छामि ।   धम्मं सरणम गच्छामि ।   संघं सरणं  गच्छामि ।

दुतियं पि..। ततियं पि..।

त्यानंतर सीलधम्माची दीक्षा देणारे म्हणतील,

  ' त्रिसरणगमनं निट्ठितं ' किंवा तिसरणगमनं संपुण्ण' असे म्हणतील. म्हणजे त्रिसरणगमन पूर्ण झाले. तेव्हा 'आम भन्ते' म्हणून होकार द्यावा.


१. "पाणातिपाता वेरमणि सिक्खापदं समादियामि"।

२."अदिन्नादाना वेरमणि सिक्खापदं समादियामि"।

३."अब्रह्मचरिया वेरमणी सिक्खापदं समादियामि"।

४ " मुसावादा वेरमणी सिक्खापदं समादियामि"।

५." सुरामेरयमज्जपमाद्ट्ठाना वेरमणी सिक्खापदं समादियामि"।

६ "विकालभोजना वेरमणी सिक्खापदं समादियामि"।

७. नच्च- गीत-वादित-विसुक-दस्सना; माला गंध विलेपन-धारण-  मंडण-विभुसनठ्ठना वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि"।

८. "उच्चायसन- महासयाना वेरमणी सिक्खापदं समादियामि"।

*_याचा अर्थ असा :_*

१. प्राणी हिंसा न करण्याचा शिकवणीचा मी स्वीकार करतो.

२. न  दिलेले न घेण्याचा शिकवणीचा मी स्वीकार करतो.

३. अब्रह्मचर्ये पासून अलिप्त राहण्याच्या शिकवणीचा मी स्वीकार करतो.

४. असत्य बोलण्यापासून अलिप्त राहण्याच्या शिकवणीचा मी स्वीकार करतो.

५. सुरा, मेरय, मद्य वगैरे प्रकारच्या मद्यपानापासून अलिप्त राहण्याच्या शिकवणीचा मी स्वीकार करतो.

६. अकाली भोजन करण्यापासून अलिप्त राहण्याच्या शिकवण्याचा मी स्वीकार करतो.

७. नाचगाणे संगीत नाट्य तसेच हार-तुरे घालणे,गंध लावणे, श्रृंगार करणे, अलंकार घालणे, यापासून अलिप्त राहण्याच्या शिकवणीचा मी स्वीकार करतो.

८ ऐषारामी गाद्या गिरदयांचा  वापर करण्यापासून अलिप्त राहण्याच्या शिकवणीचा मी स्वीकार करतो.

               *_त्यानंतर धम्माची दीक्षा देणारे म्हणतील: "तिसरणे न  सद्धिं अट्ठसमन्नागतं उपोसथसीलं साधुकं सुरक्खितं कत्वा अप्पमादेन सम्पादेतब्ब।" किंवा इमानि अट्ठगसमनागतं उपोसथं  धम्मं सिक्खापदानि, सीलेनं सुगतीं यन्ति, सीलेनं भोगसंपदा, सीलेनं निब्बूति यन्ति, तस्मा सीलं विसोधये।" म्हणजे "त्रिसरणासह उपोसथाच्या या अष्टशीलांच्या धम्माचे नीट पालन करून निर्दोषपणे धारण करावा" किंवा "अशी ही उपोसथधम्माच्या अष्टशीलांची शिकवण, पालन करणाऱ्याला सुगतीला नेणारी, सुखोपभोग व  ऐश्वर्या देणारी, निर्वाणाला नेणारी आहे. म्हणून आपले शीलाचरण शुद्ध करावे.' त्यानंतर "आम भन्ते !!" म्हणावे शेवटी दीक्षा देणारे तीन वेळा साधू, साधू,साधू म्हणतील त्याप्रमाणे प्रत्येक शब्दाचे मागून तो शब्द उच्चारावा._*

                 *_भिक्खु-भिक्खुणी याच उपोसथशीलांचे त्यात आणखी "जात-रूप रजत पटिग्गहना वेरमणी सिक्खापदं समाधियामी" या शीलांची भर घालून आणि सातव्या शीलाची दोन भागात विभागणी करून त्यांची संख्या दहा करून त्यांचे आयुष्यभर पालन करीत असतात._* अधून-मधून उपासक-उपासिकांनी सुद्धा त्याप्रमाणे आचरण करून तसा अनुभव घ्यायचा असतो. भगवान बुद्धांनी आपल्या धम्माचे वर्णन करताना तो "एही पस्सिको  पच्चतं वेदितब्बो विय्युही"।  असा आहे असे म्हटले आहे याचा अर्थ धम्म जवळ येऊन  पाहण्यासारखा आणि शहाण्या माणसाने प्रत्यक्ष अजमावून घेण्यासारखा आहे. परंतु प्रत्यक्ष करून पाहिल्याशिवाय आजमावता येत नसते आणि अनुभवल्याशिवाय खात्री पटत नसते आणि खात्री पटल्याशिवाय श्रद्धा विश्‍वास वाढत नसतो. म्हणून धम्मदीक्षा घेतल्यानंतर हे अजमावून पाहण्याचे काम करावेच लागते. नियमितपणे पंचशील पाळण्याचे आणि अधूनमधून उपोसथशीलांचे पालन करण्याचे व्रत उपासक-उपासिकेला पाळावेच लागते. असे न करणारे लोक खऱ्या अर्थाने उपासक-उपासिका मानले जात नाहीत.

             _अशाप्रकारे वर्षावासाचे काळात प्रत्येक उपासक-उपासिकेने उपोसथाचे पालन करणे आवश्यक आहे. योग्य त्या मार्गदर्शनाखाली वारंवार पालन केले तर निश्चितच आपल्या व्यक्ती विकासाला गती मिळून आपली समज आणि स्वभाव बदलत जातो आणि आपण चिंतारहित होऊन अधिकाधिक सुखाने आणि समाधानाने जगण्यास समर्थ होतो. वर्षावासातील उपोसथाचे पालन हे अशा प्रकारे प्रत्यक्ष धम्माच्या पालनाच्या लाभांची खात्री करून देणारे असते. उपोसथाच्या पालनाची ही सवय मग पुढे महिन्यातून कमीत कमी एक दोनदा किंवा जास्तीत जास्त चारदा करण्याची प्रेरणा लाभते आणि आपल्या धम्माचरणाची सखोलता आणि त्या प्रमाणात सतत वाढत जाते.  धम्माचे आचरण तात्काळ प्रचिती किंवा फळ देणारे आहे (संदिट्ठिको) असे भगवान बुद्धांनी खात्रीने सांगितलेले आहे याची खात्री पटते. *धम्मामार्गावर आपली वाटचाल स्थिर करणारी ही खरी धम्मजीवनपद्धती आहे. तिचा अंगीकार केल्याशिवाय कोणीही स्वतःला बौद्ध समजणे किंवा उपासक-उपासिका समजणे ही केवळ औपचारिकता आणि आत्मवंचना आहे, स्वतःची फसगत आहे आणि जगाची ही फसगत आहे. उपोसथ पालनाची धम्म परंपरा न पाळणे ही बौद्ध माणूस आणि बौद्ध समाज घड़ण्यातील खरी उणीव आहे. या उणीवेचे निराकरण केल्याशिवाय डॉ.बाबासाहेब आंबेडकरप्रणीत धम्मक्रांतीला खरोखरच काही भविष्य आहे, असे वाटत नाही. धम्मक्रांतीच्या पाईकांनो,हे सत्य लक्षात घ्या आणि मंगलाच्या वाटेने मंगलाच्या वाटेने वाटचाल करण्यास सिद्ध व्हा !!*_ 


 भवतु सब्ब मंगलम !!

Tuesday, 11 January 2022

पत्तिदान

 🌹🌷 दान का अनुमोदन-पुण्यानुमोदन-पाणी छोड़कर  असिम पुण्य का कार्य पत्तिदान काही भाग है। ,🙏🌹🌷


🌹🌹(खासकर प्रेत के लिए)🌷🌹


यह बुद्ध संस्कृति सभ्यता है,जो आज भी थेरवाद देशों में दान के बाद पानी छोडते है, जिससे ही दान परिपूर्ण होता है। भारत के पुर्वी प्रदेश त्रिपुरा अरुणाचल प्रदेश में और थेरवाद देशों बर्मा, थाईलैंड में आज भी यह परंपरा सुरक्षित है।

हां!, भारत में यह सभ्यता संस्कृति नहीं लाई गई बर्मा से परिशुद्ध सद्धर्म के नाम से। (पता नहीं क्यों?)


खैर!

संसार में दुख का कारण तृष्णा है,लोभ है,चाह है।

तो उसे नष्ट करने का एक ही उपाय त्याग है, जिसका लोभ है उसे छोड़ना,त्यागना=दान है।


तथागत कहते हैं,"भिक्खुओ! एक अकुशल धम्म- राग(लोभ )को भी पुरी तरह त्याग दे तो वह अनागामी होगा यह वचन देता हूं।"


🙏"सारा बुद्ध धम्म दान पर खडा है।"🙏


यह वाक्य रचनासिर्फ तथागत के लिए भारत में विचिकित्सा, अश्रद्धा के कारण नहीं समझ पा रहा है। (उनके लिए सारा धर्म दस दिन शिविर है,और कुछ भी नहीं।)


🙇🌹"दानादिधम्मविधीना जितवा मुनिन्दो!"🙇🌷


जब बोधिसत्व सिद्धार्थ वैशाख पूर्णिमा को बोधिवृक्ष के नीचे बैठ कर कुशल पर ध्यान कर प्रथम दुतिया तृतीय चतुर्थ ध्यान में थे, तब मार ने अपनी सेना से धावा बोला वह खुद गिरिमेखल हाथी पर बैठकर आया और तरह तरह की कोशिश की सिद्धार्थ बोधिसत्व की समाधी को भंग करने की मगर नाकाम रहा, तब मार ने बोधिसत्व सिद्धार्थ को यह कह ललकारा की वह जगह उसकी है जीसे मार सेना गवाह है, मगर फिर भी बोधिसत्व सिद्धार्थ ने कहा यह उसकी जगह है,और यहां जिवित गवाह कोई नहीं है मगर यह पृथ्वी उसके दान की गवाह है,तब पृथ्वी से एक देवता आकर अपने गीले बाल दिखाते हुए बोली" मार!मै गवाह हू, बोधिसत्व ने जितने बार दान किया उसके अनुमोदन (पानी छोड़ने से)से अभी तक मेरे बाल गीले है!"

और उस देवता ने अपने बाल निचोड़कर दिखाया तो उस पानी से प्रलय होकर मार बह गया (देखे बुद्धलीला लेखक धर्मांनंद कौसंबी यह भारत के लोगों के समझने के लिए, वैसे संसार का थेरवाद इस पर शंका प्रतिक्रिया नहीं देता वह असीम श्रद्धा करता है तथागत के हर शब्द पर। उनके यहा इसकी मुर्ती भी रहती है,बस हम शंका/विचिकित्सा ही करते रहते हैं,फिर भी शुद्धसद्धर्म जान रहे हैं (?))


"दानादिधम्मविधिना जितवा मुनिन्दो!"🙇🌹🙏


उस दान से देवपुत्त मार को पराजित किया था और अभिसंबोधिज्ञान को प्राप्त हुए थे तथागत सम्यकसमबुद्ध🙇🙏 ।

चार पटिसम्भिंदा ज्ञान और चार आर्य सत्य का ज्ञान हुआ था।🙇🌷🙏


🌹🌷"दाननं ददन्तू सद्धाय सीलं रक्खन्तू सब्बदा!"🌹🌷

श्रद्धा से दिया गया दान शील की रक्षा करता है।


दान--वस्तू दान, चेतना दान  है।

किए दान का पानी छोड़ने से ही दान परिपूर्ण होता है। इसीलिए पानी छोड़ने की परंपरा कायम है थेरवाद को जानने वाले देशों में आज भी सुरक्षित से दिखाई देती है।


बोधिसत्व ने अपने बच्चों को, पत्नी को दान किया तो पानी छोड़ दिया था।🙏🙇🌷


(सुदत्त) अनाथपिंडक ने ५४ करोड के सोने से जेतवन को  खरिदकर भिक्खु संघ को दान किया और पानी छोड़‌ दिया था।सम्राट अशोक ने इसे शिल्प में अंकित किया है। 🙇🙏🌷


इसके लिए तांबे के जग या ग्लास से पानी छोडते वक्त यह गाथा कही जाती है, खुद दानदायक द्वारा,


"संसारवट्टदुक्खितो मोचनत्थाय इमानि अट्ठसीलानि/पञ्चसीलानि /समादित्वा मम कालकतानं /परलोकगतस्स अम्हाक

मातुस्स/पितुस्स तथा ञातीनं पुञ्ञत्थाय सग्गमोक्खत्ताय इदं ससुप व्यंजन सह पानीन दान,दानवत्थू भिक्खूस्स/ भिक्खुसङ्घस्स देम पुजेमि 🙇

दुतियम्पि…...                🙇

ततियम्पि.. ...                 🙇

इस संसार के दुख चक्र से मुक्त होने हम पंचशील/अष्टशील हमारे सभी न्यातिगण के उद्देश्य से भिक्खु/भिक्खु संघ को स्वादिष्ट भोजन दान  वस्तु दान इत्यादि देकर पुजा कर रहे हैं।


🌹२. इदंमे पुञ्ञ  आसवक्खयं 

वहं होन्तू इदमं पुञ्ञ निब्बाणस् पच्चया होतू

ञातीनं होतु, सुखिता होन्तु ञातयो ।।🌹

इस पुण्य से सारे आश्रव क्षय हो,निब्बाण की प्राप्ति हो, न्यातिगण के भी हो,सभी न्यातिगण सुखी हो।


 🌹३.उन्नमे उदकं वुट्ठं, यथा निन्नं पवत्तति । 

एवमेव इतो दिन्नं, पेतानं उपकप्पति ।I 🌹

जैसे उपर से गिरा पानी नीचे की ओर जाता है वैसे ही यह  छोड़ा पानी से दिये दान का पुण्य प्रेत को प्राप्त हो।


🌹४. यथा वारिवहा पूरा, परिपूरेन्ति सागरं । 

एवमेव इतो दिन्नं, पेतानं उपकप्पति ।।🌹

पानी का स्वभाव उपर से नीचे जाकर समुंदर को मिलना होता है, वैसे ही यह  पानी छोड दिए गए दान का पुण्य  प्रेत को प्राप्त हो।

-तिरोकुट्ट सुत्त


🙏 इदमं पुञ्ञ सब्बे सत्ता,सब्बे पाणा,

सब्बे यक्खा, सब्बे नागा,सब्बे ब्रह्मा,सब्बे भूता, सब्बे पुग्गला, सब्बा इत्थियो, सब्बे पुरिसा, सब्बे अरिया, सब्बे अनरिया, सब्बे देवा,सब्बे मनुस्सा,सब्बे अमनुस्सा,सब्बे विनिपातिका,सब्बेसत्तामोदन्तु.। 🙏

इस दान पुण्य से जो भी पुण्य प्राप्त हुआ उसे सभी सत्व,सभी प्राणी, सभी यक्ष,सभी नाग,सभी ब्रम्ह,सभी जीव,सभी पुद्गल,सभी स्त्री,सभी पुरुष,सभी आर्य,सभी अनार्य,सभी देवता,सभी मनुष्य,सभी अमनुष्य, सभी दुर्गति प्राप्त सत्व,सभी सत्व अनुमोदन करे।

यहां तक दान दायक कहने के बाद, तब भिक्खु आशिर्वाद देते हैं।


🌹"एत्तावता च तुम्हेहि/अम्हेहि सम्भंत पुञसम्पदं । सब्बे पुरेन्तु चित्त सङ्कप्पा चन्दो पन्नरसो यथा ।।  🙇🌹

इसतरह तुमने जो भी पुण्य सम्पादन किया, उससे तुम्हारे सभी इच्छाएं  पुरी हो,सभी चित्त में किए संकल्प चद्र के कोर जैसे बढ पुरी होवे।


३९. पुञानुमोदन

🌹१. दुक्खप्पत्ता च निद्दुक्खा भयप्पत्ता च निब्भया। सोकप्पत्ता च निस्सोका होन्तु सब्बेपि पाणिनो ॥🌹

सभी दुखी प्राणी दुख मुक्त होवे, भयमुक्त होवे,शोकमुक्त होवे।

🌷२. एत्तावता च अम्हेहि / तुम्हेहि सम्भतं पुञसम्पदं । सब्बे देवानुमोदन्तु सब्बसम्पत्तिसिद्धिया ।।🌷

हमने जो पुण्य किया है,उस पुण्य का सभी देवता अनुमोदन करे,ताकी हमे सभी प्रकार की सुख सम्पत्ति प्राप्त होवे।

🌹३. दानं ददन्तु सद्धाय सीलं रक्खन्तु सब्बदा | भावनाभिरता होन्तु गच्छन्तु देवतागता ।।🌹

श्रद्धा से दिया गया दान से शील की रक्षा हो,भावना हो, उससे देवतागती हो।

🌷४. सब्बे बुद्धा बलप्पत्ता पच्चेकानञ्च यं बलं । अरहन्तानञ्च तेजेन रक्खं बन्धामि सब्बसो ॥🌷

सभी बलप्राप्त सम्बुद्ध,पच्चेकबुद्ध,और अरहंत के बल से सभी बाजुओं से रक्षा बांधते हैं।

🌹५.आकासठ्ठा च भुम्मट्ठा देवा नागा महिद्धिका । पुञं तं अनुमोदित्वा चिरं रक्खन्तु सासनं ।।🌹

आकाश और भुमी पर रहने वाले महाप्रतापी देवता और नाग इस पुण्य कर्म का अनुमोदन कर बुद्ध सासन को चिरकाल तक रखें।

🌷६.आकासट्ठा च भुम्मट्ठा देवा नागा महिद्धिका पुञं तं अनुमोदित्वा चिरं रक्खन्तु देसनं ।।🌷

आकाश और भुमी पर रहने वाले महाप्रतापी देवता और नाग इस पुण्य कर्म का अनुमोदन कर बुद्ध देसना को चिरकाल तक रखें।

🌹७. आकासठ्ठा च भुम्मट्ठा देवा नागा महिन्द्धिका

पुञं तं अनुमोदित्वा चिरं रक्खन्तु मं/तं परन्ति🌹

आकाश और भुमी पर रहने वाले महाप्रतापी देवता और नाग इस पुण्य कर्म का अनुमोदन कर मेरी/तेरी रक्षा हमेशा करे।

🌷८. इदं मे ञातिनं होतु सुखिता होन्तु ञातयो।🌷

इस पुण्य कर्म से मेरे न्यातिगण के लिए और सभी न्यातिगण सुखी हो।

।….

।…

साधु साधु साधु 🙏💐

अनुमोदामि 💐

सभी पुण्य पालन करे 🙏

🙏🌹

✍️Shail Doongarwar,✍️




Thursday, 6 January 2022

आता कलिंग कुठे आहे ?

 *आता कलिंग कुठे आहे ?* 

Where is Kalinga Region ?


कलिंग हा एकेकाळचा प्राचीन प्रांत सद्यस्थितीत आंध्र प्रदेश,ओरिसा आणि छत्तीसगड राज्यात विभागला गेला आहे.  इसवीसन पूर्व तिसऱ्या शतकात युद्ध झाल्यावर तो भाग मौर्य राजवटीच्या अंतर्गत आला. कलिंग म्हणजे भारताच्या पूर्वेकडील किनारी प्रदेश होय. महानदी व गोदावरी नद्यांच्या मधील व महेंद्रगिरी पर्वताच्या पायथ्याशी वसलेली ती मोठी नगरी होती असा पुरातन साहित्यात उल्लेख आहे. आताच्या ओरिसामधील गंजम जिल्ह्यात तो भाग येतो. प्राचीनकाळी कलिंगाचे मुख्यालय तोसली येथे होते. बाभूनेश्वर,बंगाल, बांगलादेश या नावांचा उगम बौद्ध संस्कृती वरूनच झालेला आहे. कलिंग युद्ध हे मौर्य सम्राट अशोकराजा व कलिंग राजा अनंता (सुरथा) यांच्या मध्ये झाले. 


कलिंग येथील लोक बऱ्याच शास्त्रात तरबेज होते. जहाज बांधणीचा त्यांचा मोठा व्यवसाय होता. समुद्रकिनारा जवळ असल्यामुळे मोठी बंदरे होती. तिथून परदेशात व्यापार चालत असे. त्यामुळे या भागात भरभराट होऊन येथील उत्कर्ष झालेल्या वसाहतीला उत्कल म्हणत. सम्राट अशोक यांचे आजोबा चंद्रगुप्त यांनी पूर्वी कलिंग प्रदेश ताब्यात घेण्याचा प्रयत्न केला होता. परंतु तो असफल ठरला. येथे दया नदी असून ती चौखाई नदीची शाखा आहे. तिला पुढे अनेक नद्या मिळून ती पुरी जिल्ह्यातून वाहत ईशान्य दिशेस चिलिका तलावात मिळते. 


धौली टेकड्या या दया नदीच्या किनाऱ्यावरती आहेत. भुवनेश्वर पासुन हे ठिकाण ८ कि.मी. अंतरावर आहे. येथील टेकड्या सोडल्या तर बाकीचा भूप्रदेश सर्व सपाट आहे. इथेच सम्राट अशोकराजा यांचा शिलालेख आहे. आणि हीच जागा कलिंग युद्धाची जागा म्हणून मानली गेली आहे. युद्धा नंतरची परिस्थिती पाहून सम्राट अशोकांना पश्चाताप झाला. अंतःकरणात दया-करुणा दाटली आणि त्या नदीचे नाव सुद्धा दया झाले. तसेच युद्धामध्ये धुरळा उडाला आणि अनेकांची धूळधाण झाली आणि म्हणून इथल्या टेकड्यांना धौली नाव पडले, असे समजले जाते. युद्धानंतर धम्माच्या आश्रयास गेल्यावर येथेच धौलीच्या आसपास सम्राट अशोकांनी अनेक चैत्य, स्तूप,स्तंभ आणि विहार उभारले. संपूर्ण उत्कलवासी बौद्धमय झाले. आपल्या राष्ट्रगीता मध्ये येणारी ओळ 'द्राविड उत्कल बंग' यातील उत्कल म्हणजेच इथला प्राचीन कलिंगवासी बौद्ध समाज होय. 


--- संजय सावंत ( नवी मुंबई )


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Tuesday, 4 January 2022

आठ बोधिसत्व

 ।।आठ बोधिसत्व।।


आठ बोधिसत्व आठ घनिष्टतम पुत्र भी कहे जाते हैं। शाक्य मुनि बुद्ध के कल्प में ये मुख्य बोधिसत्व हैं।


'बोधिसत्व' शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है 'बोधि का सार'। बोध का अर्थ होता है जाग्रति अथवा सम्बोधि अर्थात जो सम्बोधि के मार्ग पर है वह बोधिसत्व है।


जिसका भी बोधिचित्त जाग गया, प्राणिमात्र के हितार्थ बुद्धत्व अर्जित करने की इच्छा और करुणाममय मन, वह बोधिसत्व है।


आठ बोधिसत्व हैं:

1. मंजुश्री

2. वज्रपाणि

3. अवलोकितेश्वर

4. मैत्रेय

5. क्षितिगर्भ

6. आकाशगर्भ

7. सर्वनिवारणविष्कम्भिन

8. समन्तभद्र


मंजुश्री

समस्त बुद्धों के ज्ञान और प्रज्ञा के साकार रूप। पारम्परिक रूप से उनके दाहिने हाथ में तलवार और बाएं हाथ में ग्रन्थ होता है।


वज्रपाणि


वे बुद्धों की शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं और सामान्यत: वे हाथ में वज्र लिए हुए नील वर्ण में दर्शाए जाते हैं।


अवलोकितेश्वर


वे समस्त बुद्धों की वाणी के प्रतिनिधि तथा करुणा के साकार रूप हैं। उनको प्राय: कमल लिए हुए श्वेत वर्ण में दर्शाया दाता है।


मैत्रेय


शाक्य मुनि बुद्ध के बाद वे भावी बुद्ध होंगे। उनको प्राय: श्वेत-पीत वर्ण में केसरिया रंग का चंवर लिए हुए दर्शाया जाता है जो नकारात्मक भावनाओं के ज्वर को उतार देता है।


क्षितिगर्भ


जब तक समस्त नरक रिक्त नहीं हो जाते तब तक बुद्धत्व उपलब्ध नहीं करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा लिए हुए उनकी सारी दृष्टि नरक में कष्ट भोग रहे लोगों पर केन्द्रित रहती है। दाहिने हाथ में दण्ड लिए हुए उन्हें प्राय: श्वेत वर्ण में दर्शाया जाता है और बाएं हाथ में मणि जो कि प्रज्ञा का प्रतीक है।


आकाशगर्भ


इस नाम का अर्थ होता है 'आकाश का नाभिक'। वे आकाश तत्व और मंजुश्री की तरह वे भी प्रज्ञा व ज्ञान के साथ संलग्न हैं। नकारात्मक वृत्तियों को ध्वस्त कर देने के लिए हाथ में तलवार लिए उन्हें प्राय: नील, पीत अथवा हरित वर्ण में दर्शाया जाता है।


सर्वनिवारणविष्कम्भिन


समस्त मार्ग अवरोधों को ध्वस्त कर देने वाले हैं सर्वनिवारणविष्कम्भिन। निवारण से तात्पर्य है पांच क्लेषों से मुक्ति- इच्छा, द्वेष, प्रमाद, अविद्या अथवा संदेह तथा भ्रम यानी विचिकित्सा। वे अमोघसिद्धि बुद्ध के सेवक हैं, जो कि कर्म परिवार में उत्तर दिशा के पालक हैं।

नीलमणि जैसे वर्ण में वे कमल पर चन्द्र के साथ हैं। सूत्रों में वे वाराणसी में अवलोकितेश्वर के साथ उनकी स्तुति करते हुए पाए जाते हैं। 

उन्हें प्राय: रक्त-पीत वर्ण में हाथ में धम्मचक्र लिए दर्शाया जाता है।


समन्तभद्र


वे अपने व्यापक वरदानों के लिए प्रसिद्ध हैं। वे प्राय: कर्णछेदी रत्न के साथ रक्त-हरित वर्ण में दर्शाए जाते हैं जो इस बात का संकेत है कि वे प्राणिमात्र की मनोकामनाओं की पूर्ति करते हैं।


आठों बोधिसत्व बड़ी सुन्दरता के साथ निम्न प्रतीक चिन्हों को धारण किये दर्शाए जाते हैं:

·      मजुश्री - नीलोत्पल

·      वज्रपाणि - वज्र

·      अवलोकितेश्वर - श्वेतपद्म

·       मैत्रेय - नागवृक्ष

·       क्षितिगर्भ- रत्न

·      सर्वनिवारणविष्कम्भिन - चन्द्र

·      आकाशगर्भ- प्रज्जवलित तलवार

 सिध्दार्थ गौतमाने वयाच्या २९ व्या वर्षी घर सोडले.


#अरियपरियेसनसुत्तात महासच्चकसुत्तात आणि बोधिराजकुमार सुत्त्तात असा स्पष्ट उल्लेख आहे की, सिध्दार्थ गौतमांनी आपल्या परिसरातील सदस्यांसमोर, माता-पिता अश्रु ढाळीत असतांना, केस कापुन, काषाय वस्त्र परिधान करून प्रव्रज्या घेतली.


#मातापितुन्नं अस्सुमुखानं रुदन्ताने केस्मस्सुं ओहारेत्वा कासावानि वत्थानि अच्छादेत्वा आगरस्मा अनगारियेपब्बज्जिं


खालील चित्रात हेच दाखवण्यात आले आहे. 


अजय पवार जळगाव.

 खन्ति = क्षांति = धैर्यशील = क्षमाशील


एका झेन विहारात अतिशय कडक नियम होता. नवीन भिक्खुंनी पहिल्या वर्षी अरिय मौन पाळायचे, म्हणजे एकदम मौन! दुसऱ्या वर्षांपासून, तो प्रत्येक वर्षी फक्त दोन शब्द बोलू शकत असे आणि तेही आचार्यांनी विचारल्यावर!


एका नवीन भिक्खूचे पाहिले वर्ष झाल्यानंतर आचार्यांनी त्याला बोलावले आणि दोन शब्द बोलायला सांगितले.

भिक्खू म्हणाला, "बिछाना त्रासदायक"

आचार्यांनी मान डोलावली.


दुसरे वर्ष झाल्यानंतर, आचार्यांनी त्याला बोलावले आणि पुन्हा दोन शब्द बोलायला सांगितले.

भिक्खू म्हणाला, "जेवण बेचव"

आचार्यांनी मान डोलावली.


तिसऱ्या वर्षी आचार्यांनी त्याला बोलायला सांगितले.

भिक्खू म्हणाला, "मी सोडतोय"

आचार्य म्हणाले, "मला माहितेय तू असंच म्हणणार...नाहीतरी तीन वर्षांपासून नुसतीच तक्रार करतोयस"


महामङल सुत्त मध्ये बुद्ध म्हणतात -


खन्ति च सोव च साकच्छा, समणानं च दस्सनं|

कालेन धम्मसाकच्छा, एतं मंग्ङलमुत्तमं||

म्हणजे धैर्यशील असणे, क्षमाशील असणे, आचार्यांचे ऐकणे, भिक्खुंशी (किंवा ज्ञानियांशी) धम्मचर्चा करणे हे उत्तम लक्षण होय


बौद्ध धम्मामध्ये संयम (सारासार विचार केल्याशिवाय पाऊल न उचलणे), धैर्य (संकटे आली तर घाबरून न जाता), सहवेदना (इतरांची बाजू व परिस्थिती समजून घेणे) आणि क्षमा (कोणी केलेली चूक लक्षात न ठेवता त्या व्यक्तीला क्षमा करणे) यांना अतिशय महत्त्व आहे. 


एस धम्मो सनन्तनो...

Sunday, 2 January 2022

पाकिस्तान मध्ये प्राचीन बुद्ध विहार

 *पाकिस्तान मध्ये सापडले प्राचीन बुद्ध विहार*

 Ancient Buddhist Vihar Discovered in Pakistan


इटालियन पुरातत्त्ववेत्ते आणि पाकिस्तानी खोदकाम टीम यांनी संयुक्तरीत्या २३०० वर्षांपूर्वीचे एक बौद्ध विहार पाकिस्तानच्या उत्तर पश्चिम भागातील स्वात खोऱ्यामध्ये शोधून काढले. हे विहार तक्षशिल विद्यापीठाच्या अगोदरचे असावे असे हिंदुस्तान टाईम्सने देखील म्हटले आहे. बझीरा या प्राचीन क्षेत्रांमध्ये हे उत्खनन झाले असून सध्या त्याचे नाव बारीकोट असे आहे आणि ते खैबर पख्तूनख्वा या प्रांतामध्ये आहे. पुरातत्त्ववेत्ते यांनी शोधून काढलेले हे विहार चार मीटर उंच असून अतिशय सुंदर आहे. प्राचीन बझीरा शहराच्या प्रवेशद्वारावर हे विहार असावे असे दिसून आले आहे.


इटलीतील Ca' Foscari युनिव्हर्सिटी मधील पुरातत्व विभाग आणि इटालियन पुरातत्ववेत्ते यांनी संयुक्तरित्या पाकिस्तानच्या सहकार्याने हे विहार शोधून काढले. नोव्हेंबर २०२१ मध्ये खोदकामास प्रारंभ करण्यात आला आणि डिसेंबरच्या शेवटच्या आठवड्यात हे विहार मिळाले. एकेकाळी हा प्रांत गंधारा संस्कृतीचा प्रांत असावा असे पुरातत्ववेत्ते डॉ. मायकेल मिनार्डी यांनी सांगितले. महत्वाचे म्हणजे येथे राजा मिलिंद यांची खरोष्टी भाषेतील चांदीची प्लेट, काही नाणी आणि सुशोभित केलेल्या काही धातूच्या पट्ट्या सापडल्या, ज्याच्यावर ग्रीक शिक्के, मजकूर दिसून आला. येथे काळ्या मातीची पात्रे सुद्धा सापडली. बझीरा हे ३-४ थ्या शतकातील मोठे भरभराटीला आलेले बौद्ध संस्कृतीचे स्थळ होते. परंतु कुशन काळामध्ये झालेल्या भूकंपानंतर हे स्थान रिक्त झाले असावे. 


थोडक्यात दर महिन्याला आशिया खंडात कुठेना कुठेतरी उत्खननातून बौद्ध संस्कृतीचे अवशेष मिळत असल्याची बातमी प्राप्त होते आहे आणि खरा इतिहास उजेडात आहे.


--- संजय सावंत ( नवी मुंबई ) https://sanjaysat.in





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कोलित सुत्त

🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼 *_कोलित सुत्त_* https://mikamblemahesh.blogspot.com/2025/06/blog-post_41.html 🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼  _'कोलित सुत...