।।प्रेम का प्रतिदान।।
-राजेश चन्द्रा-
भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के लगभग 1000 साल बाद की बात है।
कुशीनगर, जहाँ भगवान महापरिनिर्वाण को उपलब्ध हुए, में एक धनाड्य था- धेनुक। उनकी पत्नी थी शीलवती। दोनों बुद्धभक्त थे। उनकी बेटी थी पञ्ञाबाला।
शीलवती अपनी बेटी पञ्ञाबाला को लेकर नियमित रूप से महापरिनिर्वाण मंच मुकुटबन्ध चैत्य जाती थी। वहाँ भगवान बुध्द की धातु रुप में पूजा करती थी।
जिस स्थान पर भगवान बुद्ध का महापरिनिर्वाण हुआ, उनकी अस्थियाँ, पावन धातुएं स्थापित की गयीं उसे महा परिनिर्वाण मंच कहते हैं। वह स्थान शेष स्थानों से ऊँचा है। राज्याभिषेक के समय उसी स्थान पर मल्ल राजकुमारों को मुकुट पहनाया जाता था इसलिए उसे मुकुटबन्ध चैत्य भी कहते हैं।
महापरिनिर्वाण मंच कच्ची मिट्टी का बना था। बारिश में प्रायः मिट्टी बह जाती थी। धेनुक और शीलवती की श्रद्धालु बेटी पञ्ञाबाला के मन में हुआ कि महापरिनिर्वाण मंच का उध्दार होना चाहिए।
यह बात पञ्ञाबाला ने अपने समृद्ध पिता धेनुक से कही। धनी सम्पन्न व्यापारी स्वभावतः कुछ कंजूस भी होते हैं। उन्होंने अपनी बेटी की बात को सुनी अनसुनी कर दिया।
युवती होने पर पञ्ञाबाला की शादी की बात चली। वर की खोज शुरू हुई। इसी बीच उसकी माँ शीलवती गम्भीर रुप से बीमार पड़ी। जीवित रहने की जब सारी सम्भावनाएं क्षीण हो गयीं है तो शीलवती ने अपने पति धेनुक को पास बुलाया, बेटी पञ्ञाबाला का ख्याल रखने का भावुक संदेश देते हुए शरीर छोड़ दिया।
जिन्दगी बेशर्म होती है। बहुत दिनों तक आंसुओं और विलाप के साथ जीती नहीं है। खाना-पीना, हंसना-खेलना, आमोद-प्रमोद, हास-परिहास फिर शुरु हो जाता है।
पिता धेनुक ने बेटी पञ्ञाबाला के लिए वर खोज लिया- पावा के श्रेष्ठिपुत्र हरिबल के रूप में, जो निगंठ श्रद्धालु है।
दोनों का बहुत धूमधाम के साथ विवाह समारोह हुआ।
एक दिन, विवाह के उपरान्त, पञ्ञाबाला महापरिनिर्वाण मंच पर गयी।
उस दिन नगर में मेला लगा है। चारो तरफ सजावट है। हाटें लगी हैं। लोग रंगबिरंगे परिधानों में हास-परिहास करते घूम रहे हैं। हवाओं में गीत-संगीत लहरा रहा है। जिन्हें नृत्य नहीं आता उनके भी पैर थिरक रहे हैं, जिन्हें गीत नहीं आता उनके भी होठ गुनगुना रहे हैं, जिन्हें काव्य नहीं आता वे भी कवि हो रहे हैं...
लेकिन पञ्ञाबाला का मन उदास है। महापरिनिर्वाण मंच की जीर्ण अवस्था देख कर वह दुःखी है। उसके मन में है कि इस पावन स्थान का उद्धार होना चाहिए।
उसने अपने पिता से अनुरोध किया था- विवाह के पूर्व भी, विवाह के बाद भी- पिता ने अनसुनी कर दिया। अब वह भी इस दुनिया में रहे नहीं। पति है तो वह दूसरे मत को मानने वाला है, वह भी अपनी पत्नी के मन की पीड़ा समझता नहीं।
इसी बात से दुखी उदासमनः हो कर पञ्ञाबाला बैठने की जगह देख कर एक जगह बैठ गयी:
भीड़ है रेला है, शोर है मेला है
एक शख़्स है भीड़ में अकेला है
पञ्ञाबाला भीड़ में भी अकेली उदास बैठी है। उसकी सहेलियाँ ढूढ़ते हुए उसके पास आती हैं, उससे उदासी का सबब पूछती हैं। वह मन की बात टाल देती है, तब सहेलियाँ उलाहना देती हैं- हाँ, हाँ, नयी-नयी शादी हुई है, इस उम्र में अकेले होने पर मन उदास हो ही जाता है...
पञ्ञाबाला इस उलाहना से आहत होती है। और आख़िर अपने मन की पीड़ा सहेलियों से कह देती है कि उसके मन में
बचपन से महापरिनिर्माण मंच के उद्धार की बात चल रही है लेकिन अभी तक पूरी नहीं हो पा रही है।
सहेलियाँ उसे आश्वस्त करती हैं कि हम तेरे पति से कहेंगी। वे सब हरिबल के पास जाती हैं। उसे बातों में बाँधती हैं- तुम अपनी पत्नी पञ्ञाबाला को प्यार नहीं करते?
हरिबल- क्यों नहीं करता...
तो क्या तुम उसकी एक इच्छा पूरी नहीं कर सकते?
मैं अपनी प्रिय पञ्ञाबाला की इच्छा पूरी करने के लिए कुछ भी कर सकता हूँ, यह कहे तो सही।
सारी सहेलियाँ उसे अपनी बात स्वयं कहने के लिए प्रेरित करती हैं। पञ्ञाबाला उत्साहित मन से अपनी इच्छा व्यक्त करती है- महापरिनिर्वाण मंच जीर्ण हो चुका है। आप समृद्ध हैं, सम्पन्न हैं, उस पावन धम्म स्थल का उद्धार करा दीजिये...
दूसरे मत का कट्टर अनुयायी होने के कारण परिनिर्वाण मंच के उद्धार कराने की इच्छा जान कर हरिबल भड़क उठता है- तुम्हें अपने लिए कोई सुख, साधन, सुविधा, आभूषण चाहिए तो बताओ, मंच का उद्धार मैं क्यों कराऊँ!
दोनों के बीच काफी ज्यादा वाद-विवाद होता है और दोनों अलग-अलग दिशा में चले जाते हैं।
मेले की भीड़ में एक तरफ दुःखी-उदास पञ्ञाबाला एकान्त देख कर बैठी है और दूसरी तरफ हरिबल पेड़ों-झाड़ियों की ओट में टहल रहा है।
इसी बीच दुर्घटना यह हो गयी कि झाड़ी से निकल कर एक सांप ने हरिबल को डस लिया।
आस-पास शोर मच गया- एक आदमी को सांप ने डस लिया, एक आदमी को सांप ने डस लिया...
यह शोर दूर कहीं बैठी पञ्ञाबाला के कानों में भी पड़ा। वह भी उत्सुकतावश उसी भीड़ की तरफ आयी। देखा, भीड़ घेरा बना कर खड़ी है। कोई कह रहा है- जहर अभी चढ़ रहा है, बदन नीला पड़ रहा है, लगता है मर गया है, नहीं सांस अभी चल रही है, कोई राजपुत्र लगता है, कपड़ों-आभूषणों से अमीर लगता है, शायद अकेला है, वेशभूषा तो श्रेष्ठि की है...
इन आवाज़ों को सुन कर भीड़ को चीरते हुए पञ्ञाबाला भी आगे जाती है और हरिबल को देख कर चीख पड़ती है, उसके मन में विचारों का बवण्डर उमड़ पड़ता है- मैंने विवाद किया इस कारण यह हो गया, मुझे परिनिर्वाण मंच उद्धार की बात नहीं करती चाहिए थी, मैंने यूँ तू-तू-मैं-मैं न की होती तो वह अकेले में क्यूँ टहलते...
वह दौड़ कर पूरे शरीर का परीक्षण कर देखती है कि सांप ने डसा कहाँ पर है, उसको पैर के अंगूठे से खून बहता दिखता है, बस वह सपना मुँह पैर के अंगूठे से लगाकर विषैला रक्त चूस-चूस कर थूकना शुरू करती है...
काफी देर के बाद हरिबल के शरीर का नीलापन कम होने लगता है, लेकिन पञ्ञाबाला का बदन नीला पड़ने लगता है, हिरबल का शरीर हरकत करने लगता है, मगर पञ्ञाबाला का शरीर शिथिल होने लगता है...
सारी भीड़ के मुँह से एक साथ निकला- आदमी की आँखें खुल गयीं...
पञ्ञाबाला बेहोश हो गयी और उसकी आँखें बन्द हो गयीं। हरिबल उठ बैठा और पञ्ञाबाला चल बसी।
अब हरिबल के मन में विचारों का तूफ़ान उमड़ने लगा- अपनी पत्नी की मान ली होती तो अच्छा था, उसकी आस्था को ठेंस न पहुंचायी होती तो यह टुर्घटना न होती, उसने रुठकर भी ख़ुद मर कर मेरी जान बचायी, इतनी प्यारी पत्नी की इच्छा पूरी न कर मैंने घोर पाप किया, मुझे धिक्कार है...
फिर वह भावावेग में दृढ़ संकल्प लेता है- पञ्ञाबाला , आपके त्याग को में व्यर्थ नहीं जाने दूँगा...
पत्नी का दाह संस्कार करनेके उपरान्त वह चीवर धारण कर प्रव्रजित हो जाता है।
वह मथुरा से सुप्रसिध्द कलाकार दीन को बुलवाता है। नदी मार्ग से मथुरा से पत्थर मंगवाता है। भगवान की महापरिनिर्वाण की मूर्ति बनवाता है और महापरिनिर्वाण मंच का पुनरोद्धार कराता है...
कुशीनगर में वर्तमान में भगवान बुद्ध की 22 फुट लम्बी लेटी हुई मुद्रा की जो मूर्ति हरिबल ने बनवाई हुई है... यह एक श्रध्दालु उपासिका की इच्छा पूर्ति का, संकल्प पूर्ति का, साकार रुप है जो मृत्यु के उपरान्त पूर्ण हुआ...
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