Tuesday, 26 April 2022

शाल वृक्ष आणि बुद्धिझम

 *शाल वृक्ष आणि बुद्धिझम* 

Sal Tree and Buddhism


"बुद्ध आणि त्याचा धम्म" या ग्रंथात असे लिहिले आहे की, सिद्धार्थ यांचा जन्म शाल वृक्षाच्या छायेखाली झाला. त्यांची माता महामाया देवी या माहेरी देवदहनगरीला जाताना वाटेत लुम्बिनी वनात थांबल्या. तेव्हा तेथील एका दाट शाल वृक्षाच्या बुंध्याखाली त्या चालत गेल्या. त्याचवेळी त्यांनी वाऱ्याच्या झुळकीने वर खाली हेलावत असलेली एक फांदी धरली. आणि त्याच अवस्थेत त्यांनी मुलाला जन्म दिला. शाल वृक्षांच्या सानिध्यात सिद्धार्थाचा जन्म होणे ही एक अदभूत घटना होती. तसेच आयुष्याच्या अंतिम काळी सुद्धा ते कुशीनारा येथील शालवृक्षांच्या उपवनात होते. आनंदला त्यांनी दोन शाल वृक्षांच्यामध्ये पहुडण्याची व्यवस्था करण्यास सांगितले आणि रात्रीच्या तिसऱ्या प्रहरी महापरिनिर्वाण होईल असे सांगितले. त्याप्रमाणे रात्रीच्या तिसऱ्या प्रहरी भगवान बुद्धांचे महापरिनिर्वाण शाल वृक्षांच्या सानिध्यात झाले. जन्म शालवृक्षांच्या खाली आणि महापरिनिर्वाण देखील शाल वृक्षांच्या खाली होणे ही जगातील अदभूत घटना होती. यास्तव बोधिवृक्षा प्रमाणे शाल वृक्षाचे महत्व देखील बौद्ध जगतात अधोरेखित झाले आहे.


असा हा साल वृक्ष भारतीय उपखंडात हिमालय, मॅनमार पासून ईशान्येकडील नेपाळ, बांगलादेश आणि भारतातील अनेक राज्यात (आसाम, बंगाल, ओरिसा, झारखंड आणि पश्चिमेकडे हरियाणामधील शिवलिक टेकड्या पर्यंत ) आढळतो. शाल वृक्षाला उत्तर भारतामध्ये 'सखुआ' असे म्हणतात. तसेच हा वृक्ष छत्तीसगड आणि झारखंड यांचा राज्यवृक्ष आहे. हा वृक्ष ३० ते ३५ मी. उंच वाढतो आणि त्याचा घेर २ मी. ते काही ठिकाणी २.५ मी. पर्यंत आढळतो. याची हिरवीगार पाने १० ते २५ सें.मी. लांब असतात आणि १० ते १५ सें.मी. रुंद असतात. तसेच याला पिवळी फुले येतात. मे-जून महिन्यात यास मातकट रंगाची फळे येतात व ती औषधोपचारासाठी वापरतात. हिमालयाच्या पायथ्याशी ही झाडे जास्त प्रमाणात दिसतात. महाराष्ट्रात मात्र शाल वृक्ष कुठे बघितल्याचे आढळून येत नाही.


हा कायम बहरलेला वृक्ष आहे. हिंदू धर्मामध्ये या वृक्षाला विष्णूचे रूप मानले जाते. जैन धर्मामध्ये २४ वे तीर्थकार महावीर यांना शाल वृक्षाखाली ज्ञान प्राप्ती झाली असे म्हटले आहे. श्रीलंका, थायी देशांबरोबर इतर थेरवादी बौद्ध देशांत अनेक विहारामध्ये हे वृक्ष दिसून येतात. शालभांजिका शिल्प हे मुळात शालवृक्ष आणि महामाया यांचे शिल्प आहे. प्राचीन भारतीय उत्सवाचे ते प्रतीक आहे. शाल वृक्षाचे खोड टिकाऊ आणि मजबूत असून इमारतीच्या बांधकामात, दरवाजे, खिडक्या आणि फर्निचरमध्ये ते वापरले जाते. तसेच हे खोड सागाच्या लाकडापेक्षा वजनदार आणि मजबूत असल्याने ते कापणे कठीण जाते. तसेच त्यास कीड, वाळवी देखील लागत नाही. ओरिसा राज्यात ७५ लाख झाडे साल वृक्षाची आहेत असे १२ मार्च २०१९ च्या इंडियन एक्सप्रेसमध्ये आले आहे.


१५ एप्रिलला (चैत्र शुक्ल तृतीया) झारखंडमध्ये शाल वृक्षांची मोठी पूजा झाली. त्याला 'सारहुल' पूजा असे म्हणतात. असंख्य जाती-जमाती एकत्र येऊन बुद्ध वृक्षांचा हा उत्सव साजरा करतात. झारखंडचे मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन यांनी देखील शाल वृक्षाची पूजा केली. मध्यप्रदेशमध्ये सुद्धा शाल आणि पिंपळ वृक्षाची 'सारना' पूजा झाली. थोडक्यात बौद्ध परंपरा आजही भारतात आदिवासींमध्ये, अनेक जाती-जमातीमध्ये टिकून आहेत. प्रचलित आहेत. चैत्र महिन्यात जेंव्हा शाल वृक्षाला  फुले येतात तेव्हा नवीन वर्ष सुरू झाल्याचे ओरिसा, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगडमध्ये मानले जाते. अशा या शाल वृक्षाला मी त्रिवार वंदन करतो.


--- संजय सावंत www.sanjaysat.in


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Saturday, 23 April 2022

सिद्धार्थ गौतम को “बुद्धत्व” कैसे प्राप्त हुआ

 “वैशाख पूर्णिमा” पर सिद्धार्थ गौतम को “बुद्धत्व” कैसे प्राप्त हुआ; उस रात क्या हुआ/घटा !!

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“वैशाख शुक्ल चतुर्दशी की रात” (यानि बोधि पूर्णिमा की पिछली रात) का उषापूर्व के समय –सिद्धार्थ गौतम को निन्द्रित अवस्था में पांच सुखद स्वप्न प्रकट हुए (अंगुत्तरनिकाय – 2.5.196) जो कि उनके सुफल भविष्य की ओर संकेत करने वाले पूर्वाभास थे. 


गृह-त्याग के बाद लगभग साढे़ पांच वर्षों तक वे अपनी श्वास को और शरीर की क्रियाओं को नियंत्रित करने का प्रयास करते रहे जो की प्राकृतिक स्वभाव के अनुरूप न होकर कृत्रिम था जबरदस्ती काबू में करने का प्रयास था. पिछले छ: माह से सहज स्वाभाविक श्वास और शरीर पर होने वाली अनुभूति (संवेदनाओं) को तटस्थ भाव से दृष्टा भाव से अनुभव करने का अभ्यास कर रहे थे.


प्रतिदिन दोपहर पूर्व भिक्षान्न लेकर ध्यान में लीन हो जाते. सबसे पहले विचारों के प्रति और सजगता का विकास किया, मन के विचारों के साथ शरीर पर होने वाली प्रत्येक संवेदनाओं के साथ सजग, शरीर और चित्त के प्रपंच के प्रति सजग, आठों पहर उठते-बैठते, चलते-फिरते हर समय सजग रहते-रहते देखा कि शरीर और चित्त छोटे-छोटे अणु परमाणुओं का पुंज मात्र है जो हर पल बन बिगड़ रहे हैं. चुटकी बजाएं या पलकें झपकें इतनी देर में शत सहस्त्र कोटि बार उत्पाद होकर नष्ट हो रहे हैं. यह प्रक्रिया इतनी तेज गति से हो रही है कि कम्पन का अनुभव न होकर शरीर के ठोस होने का आभास होता है. बाह्य जगत पर मन और शरीर प्रतिक्रिया कर रहे हैं. उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि सारे दु:ख हमारी इस साढे़ तीन हाथ की काया और उससे जुड़े चित्त में ही उत्पन्न हो रहे हैं. ध्यानावस्था में उन्होंने देखा कि मन और शरीर की कोई भी स्थिति स्थाई नहीं है. हर भाव, विचार या अवस्था कुछ देर रहती है और फिर अपने आप, दूसरा भाव, विचार या अवस्था आ जाती है. सब कुछ परिवर्तित हो रहा है, परिवर्तनशील है, अनित्य है. जीवन की अनित्यता ही दु:ख का प्रमुख कारण है. मनचाहा नहीं होना, अनचाहा होना, प्रिय से वियोग, अप्रिय से संयोग सब दुःख है. बोधिसत्व की साधना प्रगति पर थी. बुद्धत्व का मार्ग बहुत लम्बा और धीमा होता है. खैर...।


सुजाता की खीर:

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वैशाख पूर्णिमा की संध्या पर सिद्धार्थ; निरंजना नदी के किनारे वटवृक्ष के तले ध्यानस्थ थे. वहीँ उरुवेला वनप्रदेश के सेनानी नामक धनी की पुत्री सुजाता को इसी विशाल वटवृक्ष के देवता के प्रति पूर्ण विश्वास था कि वटदेव की कृपा से ही वाराणसी के श्रेष्ठी के यहाँ उसका विवाह हुआ और उसी की कृपा से बीस वर्ष पूर्व उसे एक पुत्र भी प्राप्त हुआ. इसका उपकार मानते हुए प्रत्येक वैशाख पूर्णिमा को अपने इष्ट वटवृक्षदेव की आराधना करती. इस बार सुजाता ने अपने आराध्य वटदेव के भोग के लिए बहुत ही स्वादिष्ट खीर बनायी थी. उसका पुत्र भी गृहस्थ हो गया था. परन्तु उसे गृहस्थ जीवन के प्रति कोई रूचि नहीं थी. अतः वह अन्य युवकों की भाँती सांसारिकता की ओर आकृष्ट हो वटदेव से यह प्रार्थना करने आयी थी. जैसे ही उसने युवा तपस्वी (सिद्धार्थ गौतम) को देखा देखते ही जान लिया कि यह “वृक्ष का देवता” (जैसा की उसकी ने बताया था) नहीं है बल्कि किसी ऊँचे कुल से गृह त्यागा तपस्वी है. उसे खीर भेंट कर अत्यंत हर्षित हुयी. युवा तपस्वी को देखकर उसके भीतर वात्सल्य-भाव जागा, खीर अर्पण करते हुए सुजाता ने आशीर्वाद दिया कि हे युवा तपस्वी - “तुम्हारी तपस्या सफल हो”. बोधिसत्व का यह अंतिम भोजन था, अगली रात उसे “सम्यक सम्बोधि” प्राप्त होनी थी, अतः यह भोजन दान महत्वपूर्ण माना जाता है.


मार की हार:

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सुजाता की खीर ग्रहण करने के बाद स्वर्ण पात्र को नदी में प्रवाहित करते हुए “सत्य-क्रिया” की कि यदि यह पात्र नदी के प्रवाह के विपरीत जायेगा तो उसका तप सफल होगा, ओर ऐसा ही हुआ भी. बोधिसत्व दिन ढलने के पहले “पीपल” के वृक्ष के नीचे पद्मासन लगाकर, इस दृड़ निश्चय के साथ बैठा, कि जब तक मुझे सम्बोधि प्राप्त नहीं होती इसी आसन पर अडिग बैठा रहूँगा. चाहे मेरे शरीर के मांस, मज्जा और रक्त सभी सूख जायँ, तब भी मै अविचलित रहूँगा. मृत्युराज “मार” को लगा कि इस साधना द्वारा यह मेरे जन्म-मरण के भवसंसरण के साम्राज्य-क्षेत्र से बाहर निकल जाएगा. अतः उसने बहुत बड़ी मायावी सेना लेकर बोधिसत्व को भयभीत करने का प्रयास किया और उसके आसन पर अपना हक जताया. तब बोधिसत्व ने कहा कि मैंने सभी पारमिताओं का संचय पूरा कर लिया है पृथ्वी इसकी साक्षी है, इस “सत्यघोषणा” से पृथ्वी में कम्पन्न हुआ और मार भयभीत होकर अपनी सेना के साथ पलायन कर गया. 

पौराणिक वर्णन एक ओर – “पापमयी चैतसिक दुर्बलताओं को धर्ममयी बोधि की सबलताओं से हराया जा सकता है. बोधिसत्व का देवपुत्र मार से युद्ध वस्तुतः धर्मं का अधर्म से, सद्गुणों का दुर्गुणों से युद्ध था. इस युद्ध में धर्मं की जीत हुयी”.


बुद्धत्व प्राप्ति

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वैशाख पूर्णिमा की संध्या बीतने के पूर्व ही पापी मार पराजित होकर पलायन कर गया. वातावरण से समस्त नकारात्मकता विलुप्त हो गयी और पूरा वातावरण “बोधिमंड” में परिवर्तित हो गया – अपरिमित शान्ति में परिणत हो गया. पश्चिम में सूर्य का गोलक धीर-धीरे अस्तांचल की ओर ढलता चला गया. पूर्व के क्षितिज से वैशाख पूर्णिमा का चाँद शनैः-शनैः ऊपर उठने लगा और सारे अंतरिक्ष पर शीतल चाँदनी बिखेरकर वातावरण को मनोरम बनाने लगा. अब बोधिसत्व निर्विध्न ध्यान में लग गया.

क्षण-प्रतिक्षण की सजगता का अभ्यास करते-करते सिद्धार्थ का चित्त, शरीर और श्वास-प्रश्वास पूरी तरह एकाकार हो गया था. लगातार ध्यान और सतत जागरूकता के कारण उनको चित्त को एकाग्र कर शरीर के अणु-अणु का निरिक्षण करने की अद्भुत शक्ति प्राप्त हो गयी थी. वह शरीर और चित्त के एक-एक अणु-परमाणु को बींधकर, भेदकर उसके पार जा सकते था. अनात्मभाव के प्रत्यक्ष अनुभव से सिद्धार्थ की अंतर्दृष्टि और अधिक तीक्ष्ण व पैनी हो गयी थी. 


रात्री का प्रथम याम:

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रात्रि के प्रथम याम में बोधिसत्व प्रथम ध्यान में समाहीत होने के पश्चात क्रमशः दुसरे, तीसरे और चौथे ध्यान में स्थापित हो गया. रात के प्रथम याम में ही बोधिसत्व को अधोलिखित ज्ञान का साक्षात्कार हुआ:-

१. इद्धिविध (रहस्यात्मक शक्तियाँ) – एक सत्व से अनेक होना, अंतर्ध्यान होना, पानी पर चलना, आकाश में विचरण, शक्तिशाली ग्रहों का हाथ से स्पर्श, और सुदूर ब्रम्हलोक तक सशरीर यात्रा. (रिद्धि-सिद्धि)

२. दिब्ब सोतधातु (श्रवण की दैवीय क्षमता) – दूरवर्ती एवं निकट की दिव्य और मानुषिक ध्वनियों को सुना जा सकता है. 

३. परस्स चेतोपरीयञाण (परचित्त ज्ञान) – दुसरे प्राणियों और मनुष्यों के चित्त को अपनी मन:शक्ति से वेध कर उनके चित्त की अवस्थाओं को जान लेना.

४. पुब्बेनिवासानुस्सति (पूर्व जन्मो की स्मृति) – पूर्व जन्मों को समस्त आकारों, विवरणों और विभिन्न अस्तित्वों में विस्तार से स्मरण कर पाना.

५. दिब्ब चक्खु (दिव्यदृष्टि) – प्राणियों की शरीर-च्युति (मरण) एवं उत्त्पत्ति (पुनः जन्म) को विवरणसहित जान पाना. (मरणोपरांत गति जान लेना).


महत्वपूर्ण नोट => (ये पांचो शक्तियाँ सांसारिक या लौकिक (लोकिय) स्तर की है क्योंकि इनको समाधि की पूर्ण परिष्कृत अवस्था में भी प्राप्त किया जा सकता है. 

पतंजलि के अनुसार:- उच्च इन्द्रियगत शक्तियाँ समाधि की प्राप्ति में बाधक होती है.

वाचस्पतिमिश्र के अनुसार:- एकाग्रचित्त योगी को इन सिद्धियों से बचना चाहिए.

बुद्ध के अनुसार:- अलौकिक शक्तियां अंतर्दृष्टि की अवरोधक ही होती हैं – यद्यपि एकाग्रता के लिए नहीं, क्योंकि एकाग्रता से ही इन्हे प्राप्त किया जाता है. खैर ...)


रात्री का द्वितीय याम:

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रात्री के द्वितीय याम व तृतीय याम में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य का साक्षात्कार हुआ जो की बोधिसत्व की सबसे महत्वपूर्ण, मूल्यवान और अनमोल खोज है, वह है – “प्रतीत्य-समुत्पाद”, बारह कड़ियों वाला “कार्य-कारण का सिद्धांत” (The Law of Dependant Origination), दु:ख की उत्त्पत्ति का कारण “अनुलोम” - (अवरोहण:पतनोन्मुख) और उसका निवारण “प्रतिलोम” – (आरोहण:उन्नोन्मुख), बुद्ध की देशना में “प्रतीत्य-समुत्पाद” का सर्वोच्च स्थान है. आषाढ़ पूर्णिमा के दिन उनका पहला उपदेश सारनाथ में हुआ. यह उपदेश “धर्मचक्र-प्रवर्तन-सूत्र” नाम से विख्यात है. प्रतीत्य-समुत्पाद के ज्ञान के बिना निर्वाण की प्राप्ति स्वप्न में भी संभव नहीं. कार्य-कारण – समुत्पाद - यानी साथ में ही उत्पन्न होते हैं. संक्षिप्त में “प्रतीत्य-समुत्पाद” निम्न है:- (विस्तृत विवरण फिर कभी).


A) प्रतीत्य-समुत्पाद का “अनुलोम” - (अवरोहण:पतनोन्मुख)

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१. अविज्या-पच्चया संखारा:- (अविद्या के कारण संस्कार (कर्म संस्कार) उत्पन्न होते है.) 

२. संखार-पच्चया विञ्ञानं:- (संस्कारों के कारण विज्ञान (संचित संस्कारों का प्रवाह) उत्पन्न होता है.) 

३. विञ्ञान-पच्चया नामरूपं:- (विज्ञान के कारण नाम-रूप (चित्त व शरीर की धारा) का उदय होता है.) 

४. नामरूप-पच्चया सळायतनं:- (नामरूप के कारण छह आयतन (छः इन्द्रियां- आँख, कान, नाक, जिव्हा, काया, मन) उत्पन्न होते हैं.

५. सळायतन-पच्चया फस्सो:- (छह आयतनों के कारण स्पर्श (छहों इन्द्रियों का अपने-अपने विषय से स्पर्श) होता है.) 

६. फस्स-पच्चया वेदना:- (स्पर्श के कारण संवेदना (विषयों के स्पर्श से शरीर में सुखद या दुखद संवेदना) उत्पन्न होती है.) 

७. वेदना-पच्चया तण्हा:- (संवेदना के कारण तृष्णा (प्रिय संवेदना को बनाए रखने की जिसे राग कहें, अप्रिय संवेदना को दूर करने की जिसे द्वेष कहें) जागती है.) 

८. तण्हा-पच्चया उपादानं:- (तृष्णा के कारण उपादान (आसक्ति अतिरेक) जागता है.) 

९. उपादान-पच्चया भवो:- (उपादान (आसक्ति) के कारण भवसंस्कार (प्रकृति में जो भव-भव चल रहा है) उत्पन्न होते हैं.)

१०. भव-पच्चया जाति:- (भवसंस्कार के कारण पुनर्जन्म/जन्म होता है.) 

११. जाति-पच्चया जरा-मरणं-सोक-परिदेव-दुक्ख-दोमनास-उपायासा संभवन्ति:- (पुनर्जन्म/जन्म के कारण बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, परिताप, दु:ख, दौर्मनस्य, बेचैनी और रुदन का प्रादुर्भाव अनिवार्य है.) 

१२. एवमेतस्स केवलस दुक्खखन्धस्स समुदयो होती:- (अत: केवल इन्हीं (१ से ११ तक समुदय – साथ में उदय) संधियों के कारण दु:खों का ढेर/पहाड़ उत्पन्न हो जाता है.)

अविद्या पूर्वजन्म की क्लेशदशा है. अविद्या मोतियाबिंदु है जानने योग्य स्थानों/बातों का ज्ञान नहीं होने देता. प्राणी; मात्र अज्ञान के कारण अनेक प्रकार के दु:ख और कष्ट भोगते हैं. लोभ, मोह, अहंकार, भय, राग, द्वेष – सभी की जड़ अविद्या/अज्ञान है. अविद्या के आवरण के कारण ही सत्व संसार-चक्र में घूमते रहते हैं. “जातिपि दुक्खा” – जन्म ही दु:ख-सत्य है, भले वह मनुष्य, देव या ब्रह्मलोक में हुआ हो.


रात्री का तृतीय याम:

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😎 प्रतीत्य-समुत्पाद का प्रतिलोम” – (आरोहण:उन्नोन्मुख),

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रात्री के तृतीय याम में अज्ञान के दूर होने से राग, द्वेष, मोह इत्यादि समूल नष्ट हो गए. 

१. अविज्ज्याय त्वेव असेस-विराग-निरोधा – संखार निरोधो:- (अविद्या (अज्ञान) के संपूर्णतः निरोध करने से कर्म-संस्कारों का निरोध हो जाता है.)

२. संखार निरोधा – विञ्ञान निरोधो:- (संस्कारों के निरोध से विज्ञान (संचित संस्कारों का प्रवाह) का निरोध हो जाता है.)

३. विञ्ञान निरोधा – नामरूप निरोधो:- (विज्ञान के निरोध से नामरूप (चित्त और शरीर) का निरोध हो जाता है.)

४. नामरूप निरोधा – सळायतन निरोधो:- (नाम रूप के निरोध से छः इन्द्रियों का निरोध हो जाता है.)

५. सळायतन निरोधा – फस्स निरोधो:- (छः इन्द्रियों के निरोध से स्पर्श का निरोध हो जाता है.)

६. फस्स निरोधा – वेदना निरोधो:- (स्पर्श के निरोध से वेदना का निरोध हो जाता है.)

७. वेदना निरोधा – तण्हा निरोधो:- (वेदना के निरोध से तृष्णा का निरोध हो जाता है.)

८. तण्हा निरोधा – उपादान निरोधो:- (तृष्णा के निरोध से उपादान (गहरी आसक्ति) का निरोध हो जाता है.)

९. उपादान निरोधा – भव निरोधो:- (उपादान (गहरी आसक्ति) के निरोध से भव का निरोध हो जाता है.)

१०. भव निरोधा – जाति निरोधो:- (भव के निरोध से पुनर्जन्म का निरोध हो जाता है.)

११. जाति निरोधा - जरा-मरणं-सोक-परिदेव-दुक्ख-दोमनास-उपायासा निरुज्झन्ति:- (पुनर्जन्म के निरोध से बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, परिताप, दु:ख, दौर्मनस्य, बेचैनी और रुदन का निरोध हो जाता है.)

१२. एवमेतस्स केवलस दुक्खखन्धस्स निरोधो होती:- (इस प्रकार सारे के सारे दु:ख समुदय (१ से ११ तक) का निरोध हो जाता है.)


बोधिसत्व को इसी दौरान एक अन्य नैसर्गिक नियम का साक्षात्कार हुआ कि मन में कुछ भी जागे, उसके साथ-साथ शरीर में कोई-न-कोई संवेदना जागनी अवश्यम्भावी है. यह तथ्य भी उस युग में लोक-विदित नहीं था. कायिक संवेदनाओं की अवहेलना करने से मुक्ति प्राप्त करना असंभव है. संवेदनाओं के प्रति सजग रहकर तटस्थता बनाए रखने से चित्त-गुम्फित कर्म-संस्कार निर्जरित हो जाते हैं.


रात्री का अंतिम याम:

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बोधिसत्व जब रात्री के अंतिम याम में पहुंचा तब उसे आस्रव-क्षय, यानी चित्तमल के बहाव के नितांत क्षय हो जाने का अभिज्ञान प्राप्त हुआ. “आसवक्खयकरञाण” (चित्त-मलों की समाप्ति का ज्ञान) - चित्त-मलों (आस्रवों) का उन्मूलन कर चित्त-मुक्ति की उस अवस्था में प्रवेश-कर टिके रहना जो चित्त-मलों से पूर्णतया मुक्त हो. (इस जीवन में भी अपने उच्च ज्ञान के परिणामस्वरूप मुक्त होकर इसका साक्षात्कार किया जा सकता है.) ऐसा होने पर जब सभी लोकों से परे (लोकोत्तर) वास्तविक नित्य, शाश्वत, ध्रुव का परिपूर्ण साक्षात्कार हुआ तब साथ-साथ सर्वज्ञता का महाज्ञान जागा. वे इन्द्रियातीत अवस्था में चले गए और अनुत्तर (सर्वोच्च) अवस्था को प्राप्त हो गए. जिसे इन्द्रियों के माध्यम से बताया नहीं जा सकता. 


बोधिसत्व को ऐसी अनुभूति हुयी जैसे हज़ारों योनियों के कारागार से आजादी मिल गयी हो. सम्यक सम्बोधि प्राप्त हुयी, भवमुक्ति सिद्ध हुयी, निर्वाण का साक्षात्कार हुआ. यों वैशाख पूर्णिमा की रात पूरी होते-होते तपस्या सफल हुयी. इस भद्रकल्प का चौथा सम्यक सम्बुद्ध प्रकट हुआ. सिद्धार्थ गौतम “सम्यक-बुद्ध” बन गया , अपने स्वयं के प्रयासों से “बुद्ध” बना. अनेकों के कल्याण का द्वार खुला. धन्य हुयी वैशाख पूर्णिमा. इति ....


- परम पूज्य सत्यनारायण गोयनका "विपस्सनाचार्य"

- विपश्यन विशोधन विन्यास "इगतपुरी"

Friday, 22 April 2022

लिपिंचा शोधयात्री - जेम्स प्रिन्सेप

 लिपिंचा  शोधयात्री - जेम्स प्रिन्सेप


 जेम्स प्रिन्सेप १८१९ मधे जेव्हा भारतात आला तेव्हा तो २० वर्षांचा होता. जेम्स हा जॉन व सोफिया यांचं १०वं अपत्य होता. १७७१ मधे जेम्सचे वडील, जॉन यांनी भारतात येउन अमाप पैसा कमावला होता व भारतातील संधी पाहून आपल्या मुलांनाही भारतात पाठवले.  जेम्सला इंजीनियरिंग व अर्कीटेक्ट या विषयात खूप आवड होती. वडिलांच्या ओळखीने जेम्सला भारतात, कलकत्ता येथील टांकसाळीत ‘अस्से मास्टर’ म्हणजे 'पारख करणारा' म्हणून काम मिळाले.  वर्षभरातच त्याची वाराणसीच्या टांकसाळीत बदली करण्यात आली. त्याची कामाची प्रगती बघून थोड्याच अवधीत त्याला बढतीवर पुन्हा कलकत्त्याला बोलविण्यात आले. टांकसाळीत अस्से मास्टर म्हणून काम करताना त्याला अनेक नवीन प्रयोग करता आले व त्याने नवीन उपकरणांचा शोध घेतला. टांकसाळीतील प्रचंड मोठ्या भट्टीतील अचूक तापमान मोजण्याचे उपकरण किंवा ०.१९ ग्रॅम एवढ्याशा धातूचे वजन करण्याचे तराजू हे त्यापैकी काही उपकरणे जेम्सने तयार केली. वाराणसी मधे असताना, जेम्स तेथील अनेक इमारतींच्या शिल्पकलेने भारावून गेला. वाराणसीच्या टांकसाळीचे डिझाईन, तेथील चर्च, वाराणसीला रोगराई पासून बचाव करण्यासाठी सांडपाणी वाहून नेणारी भूमिगत भुयारे, औरंगजेबच्या मिनारांची दुरुस्ती आणि दगडी पूल हे सर्व जेम्सच्या कल्पकतेची आजही साक्ष देतात.   


कलकत्त्याला आल्यानंतर जेम्सने नाणे संशोधनावर भर दिला. जेम्सला “जर्नल ऑफ एशियाटीक सोसायटी”चे संपादक करण्यात आले आणि त्यात त्याने रसायनशास्त्र, खनिज, नाणेशास्त्र, भारतातील प्राचीन वास्तू, स्थळे, हवामान बदल व पर्यावरणावर अनेक लेख प्रसिद्ध केले. मात्र जेम्स प्रिन्सेपची खरी ओळख जगाला झाली ती त्याच्या लिपि संशोधानामुळे. जेम्स तसा खऱ्या अर्थाने भाषातज्ञ किंवा लिपितज्ञ नव्हता, मात्र त्याला संशोधनाची आवड होती. प्रत्येक गोष्टीची सखोल माहिती तो मिळवायचा. प्राचीन नाण्यावर काम करीत असताना  त्यातील अक्षरे त्याला खुणवू लागली. त्या अक्षरांचे संशोधन तोपर्यंत सिमित होते. या अक्षरांमध्ये व अलाहाबादच्या स्तंभावरील अक्षरांमध्ये काहीतरी साम्य आहे असे वाटल्याने जेम्सने त्याचा पाठपुरावा करायचे ठरविले. ओरिसा मधील काही खडकांवर देखील त्याला काही अक्षर कोरल्याचे कळाले. बिहार मधील बेतिहा या ठिकाणाचे काही शिलालेखांचे ठसे त्याने मागविले. त्याने भारतातील अनेक संस्कृत पंडितांना याबद्दल विचारले मात्र कोणाला ते सांगता आले नाही. ब्याक्टेरिया आणि कुषाण यांची इंडो ग्रीक नाण्यांचा अभ्यासातून त्याने ‘खरोष्ठी’ या प्राचीन लिपिचा शोध लावला. त्याचा हा निबंध एशियाटीक सोसायटीच्या जर्नल मधे प्रसिध्द झाला आणि संपूर्ण भारतातून लोकांनी त्याच्याकडे अनेक शिलालेखांचे ठसे, नाणी, हस्तलिखिते  पाठवून दिली. एवढेच नव्हे तर महाराजा रणजीत सिंह यांचे फ्रेंच जनरल जें बाप्तीस्ते वेन्तुरा यांनी रावलपिंडी मधील उत्तखणनात सापडलेली काही शिलालेख पाठवून दिले.


शिलालेखातील अभ्यासातून प्रिन्सेप यांनी सर्वात प्रथम शोध लावला तो "दानं" या शब्दाचा कारण अनेक शिलालेखांच्या शेवटी हा शब्द लिहिला होता. १८३७ मध्ये प्रथमच भारतातील शिलालेखांमधील अक्षरांचा शोध  प्रिन्सेपने लावला. पुढे सम्राट अशोकाचे शिलालेख वाचताना त्यांच्या प्रत्येक वेळीस आलेला "देवानांपिय पियदस्सिन" हे कोणाला उद्देशून आहे हे कळत नव्हते. प्रिन्सेपला वाटले कि हा कोणी श्रीलंकेचा राजा असावा कारण “महावंस” मधून तेथील देवानांपिय राजाचे नाव मिळत होते. मात्र श्रीलंकेच्या राजाचे हे शिलालेख किंवा स्तंभलेख भारतात कसे काय हा प्रश्न प्रिन्सेपला पडला. सतत ६ आठवड्यांच्या अथक प्रयत्नानंतर, अनेक शिलालेख वाचल्यानंतर व त्यांचे मित्र जॉर्ज टर्नर यांनी श्रीलंकेतील पालि भाषेतील पाठविलेल्या काही संदर्भ ग्रंथावरून देवानांपिय पियदस्सिन म्हणजेच सम्राट अशोक असल्याचे प्रतिपादन प्रिन्सेपने केले. या सर्व शिलालेखांमधे सम्राट अशोकांच्या न्याय, नीती व लोक कल्याणाचा मार्ग हे समान सूत्र लिहिले आहे. 


या शोधानंतर प्रथमच जगाला अशोक नावाच्या सम्राटाचे शोध लागला. अनेक शिलालेखांच्या अभ्यासातून प्रिन्सेपने सम्राट अशोकांचे सारे आयुष्य जगासमोर ठेवले. जवळपास २२०० वर्षे अशोक नावाचा कोणी सम्राट या देशात होऊन गेला याचे कोणा गावीही नव्हते.

१९१५ मधे कर्नाटकातील मस्की येथील शिलालेखात सम्राट अशोकांचे नाव दिसले आणि प्रिन्सेपच्या अचूक अभ्यासाची कल्पना आली. 


या सर्व शिलालेखांचे आणि प्रिन्सेपच्या कार्याचा गौरव साऱ्या जगाने केला. पुढे प्रिन्सेपने भारतातील शिलालेखांच्या संशोधनाला वाहिलेल्या "Corpus inscriptionium indicarium" या नावाची ग्रंथाची मालिका प्रकाशित करण्याचा सुतोवाच केला जो पुढे जाऊन सर अलेक्सझांडर  कन्निंगहमने १८७७ ला प्रकाशित केला. जेम्स प्रिन्सेपच्या लिपि शोधामुळे भारतातील अन्तियोकोस आणि ग्रीक राजांच्या बरोबरच भारतातील अनेक राजांचा इतिहास कळाला. प्रिन्सेपने अफगानिस्तान मधील शिलालेखांचा देखील अभ्यास केला. शिलालेखांच्या अभ्यासावरून प्रिन्सेपने सम्राट अशोकांच्या प्रचंड राज्याची माहिती लोकांसमोर आणली. प्रिन्सेपने शिलालेखांच्या अभ्यासाचा धडाकाच लावला. दररोज १८ ते २० तास त्याचे संशोधन चाले.


अतिपरिश्रमामुळे प्रिन्सेपला प्रचंड डोकेदुखीचा त्रास होऊ लागला. हवाबदल व उपचारासाठी त्याला इंग्लंडला हलविण्यात आले, मात्र २२ एप्रिल १८४० साली उण्यापुऱ्या ४१ व्या वर्षी प्रिन्सेपचे निधन झाले.


भारतीय शिलालेखातील सर्वात प्राचीन असलेली धम्मलिपि व खरोष्टी लिपि यांचा शोध आणि त्यातून सम्राट अशोक व त्यांचे कार्य जगासमोर येऊ शकले ते केवळ जेम्स प्रिन्सेप मुळेच. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण अर्थात A.S.I ची स्थापनेचे बीज प्रिन्सेपने रोवले होते. प्रिन्सेपने केलेल्या कामाची दाखल घेत कलकत्तावासियांनी त्याच्या स्मरणार्थ हुगली नदीकाठी “प्रिन्सेप घाट” बांधला तर इंग्लंड मधे सरकारच्या वतीने त्याच्या नावाचे मेडल बनविले. जॉन रोयाले नावाच्या जीवशास्त्रज्ञाने एका झाडाच्या प्रजातीचे नाव “प्रीन्सेपिया” ठेवले. एशियाटिक सोसायटीने त्याचा अर्धपुतळा बसविला. १७७१ मधे पहिल्यांदा आलेल्या जॉन प्रिन्सेप नंतर प्रिन्सेप घराण्याच्या चार पिढ्यांनी भारतात वास्तव्य केले.  नुकतेच जेम्स प्रिन्सेपच्या चवथ्या पिढीतील मुलाने जेम्स प्रिन्सेपचे जपून ठेवलेले सारे हस्तलिखितांचे पेटारे अभ्यासासाठी भारत सरकारच्या हवाली केले. 


भारतातील सर्वात प्राचीन असलेली सम्राट अशोकांची “धम्मलिपि”चा शोध व भारतीय शिलालेखांचे गूढ उकलल्या बद्दल जेम्स प्रिन्सेपला आदरपूर्वक नमन.


अतुल मुरलीधर भोसेकर

९५४५२७७४१०

Sunday, 17 April 2022

श्रेष्ठ भिक्खू 'राष्ट्रपाल' याची निस्पृहणीयता

 *श्रेष्ठ भिक्खू 'राष्ट्रपाल' याची निस्पृहणीयता*


भगवान बुद्ध कुरूराष्ट्रात प्रवास करीत असताना 'थुल्लकोठीत' नावाच्या शहरापाशी आले. तेथील रहिवासी त्यांची कीर्ती ऐकून ते सर्व त्यांच्या दर्शनाला गेले. नमस्कार करून, कुशल प्रश्न विचारून ते मुकाट्याने एका बाजूस बसले. त्यावेळी थुल्लकोठीतवासीयांना भगवान बुद्धांनी धर्मोपदेश केला. तेव्हा तरुण राष्ट्रपाल तिथे होता. त्याच्या मनावर त्या उपदेशांचा एकदम परिणाम झाला. बुद्धांप्रती अपार श्रद्धा दाटून आली. तेंव्हा त्याने प्रव्रज्या घेण्याचा आपला विचार त्याने भगवंतांना कळविला. परंतु आई बापाची परवानगी नसल्यामुळे त्याला प्रव्रज्या देण्याचे भगवंतांनी नाकारले. तेव्हा घरी जाऊन प्रव्रज्जा घेण्यास परवानगी देण्याबाबत त्याने आईबापांकडे हट्ट धरला. त्यांनी त्याची पुष्कळ प्रकारे समजूत घातली व परवानगी देता येणे शक्य नाही असे त्यांनी सांगितले. तेव्हा एकतर परवानगी द्या, नाहीतर मी अन्नग्रहण करणार नाही असे सांगून राष्ट्रपाल तिथेच जमिनीवर पडला. त्याच्या सख्यासोयऱ्यानीं त्याची समजूत घालण्याचा पुष्कळ प्रयत्न केला. परंतु राष्ट्रपाल याच्या निश्चयापुढे त्यांचे काही चालले नाही. दोन-तीन दिवस गेले. राष्ट्रपाल क्षीण झाला. शेवटी आईबापांनी परवानगी देऊन त्याचे समाधान केले. मात्र त्यास अट घातली की प्रव्रज्या घेतल्यावर आईबापाच्या भेटीस यावे. मग खाऊन थोडे बळ आल्यावर दुसऱ्या दिवशी राष्ट्रपालने भगवंतापाशी जाऊन प्रव्रज्या घेतली. 


दोन आठवड्यांनी भगवान त्याला बरोबर घेऊन भिक्षु संघासह श्रावस्तीला आले. तेथे एकांतात राहून राष्ट्रपाल याने मोठ्या प्रयत्नाने थोड्याच अवधीत अहर्त पद मिळविले. पुढे काही दिवसांनी त्याने आईबापाला भेटण्याची परवानगी मागितली. ध्यानसाधनेत त्याने केलेली उन्नती पाहून भगवंतांनी त्याला स्वदेशी जाण्याची परवानगी दिली. भिक्षाटनासाठी राष्ट्रपाल आपल्या शहरात परत आला. ज्यावेळी तो त्याच्या घरासमोर आला, तेव्हा त्याचे वडील दिवाणखान्यात बसले होते. मुंडण केलेला राष्ट्रपाल दरवाजात उभा राहिला. तेव्हा त्याला पाहून त्याचे वडील म्हणाले 'या श्रमणानीं आमच्या एकुलत्या एका मुलाला भिक्षुक केले' असे बोलून ते त्यांना दोष देऊ लागले. अर्थात राष्ट्रपालाला आपल्या पित्याच्या घरी शिव्या शिवाय दुसरे काहीही मिळाले नाही. परंतु त्याने आपली ओळख अजिबात सांगितली नाही. 


तो परत जायला निघाला तेव्हा त्याच्या घरची एक दासी शिळे अन्न फेकण्यासाठी बाहेर आली. तिला पाहून राष्ट्रपाल म्हणाला 'भगिनी फेकायचे असेल तर माझ्या पात्रातच घाल'. तिने त्याच्या भिक्षापात्रात शिळे अन्न घातले. पण इतक्यात तिची खात्री पटली की हाच आपल्या मालकाचा पुत्र आहे. ताबडतोब तिने हे वर्तमान यजमान बाईंना  सांगितले. राष्ट्रपालच्या पित्यास हे कळताच तो हळहळला. दारात आलेल्या पुत्रास ओळखू न  शकल्याने त्यास खंत वाटली. त्याच बरोबर पुत्राने आपली ओळख सुद्धा न सांगितल्याने त्याच्या निस्पृहणीयतेचा त्यास अभिमान वाटला. व तो तात्काळ त्यास शोधण्यासाठी बाहेर पडला. बुद्धांनी देखील श्रद्धेने प्रव्रज्या घेतलेल्या भिक्खूंत राष्ट्रपाल अग्रस्थानी असल्याचे सांगितले आहे. 


अशीच सिरिलंकेतील कोरंडक भिक्खूच्या निरपेक्षतेची एक सुंदर गोष्ट विशुद्धिमार्गात आहे. व आचार्य धर्मानंद कोसंबी यांनी त्यांच्या पुस्तकात कथन केली आहे. या कोरंडक भिक्खूचा एका वर्षावासात आपल्या मूळ गावाजवळील विहारात मुक्काम होता. गावकरी अनेकदा भोजनासाठी निमंत्रण देत. तेव्हा तो भिक्षापात्र घेऊन गावात जात असे. एकदा स्वतःच्या घरातून भोजनाचे निमंत्रण आले असता तो घरी आला. परंतू आईने सुद्धा त्यास ओळखले नाही. व कोरंडक याने सुद्धा ओळख सांगितली नाही. वर्षावास संपल्यावर कोरंडक दुसरीकडे निघून गेला. जेव्हा दुसऱ्या भिक्खूकडून तिला समजले की आपला मुलगा तीन महिने इथे भिक्षाटनासाठी येत होता, तेव्हा न ओळखल्याबद्दल तीला तीव्र दुःख झाले. तसेच घरी भोजनासाठी येऊन सुद्धा ओळख न सांगितल्याबद्दल त्याच्या निस्पृहणीयतेचा तिला अभिमान वाटला. 


अशी निरपेक्षता, निस्पृहणीयता आजकाल कुठेच पाहण्यास मिळत नाही. अनेकजण धम्मकार्य करतात पण त्याचा डंका ही वाजवितात. भरपूर दान देतात पण दानशूर असल्याचा ढोल ही बडवितात. समाजकार्य, धम्मकार्य करतात पण स्वतःची पाठही थोपटून घेतात. सर्वांना खूप मदत करतात पण नेत्यांबरोबर स्वतःचे फोटो ही छापतात. स्व-गौरव करण्यात काहीजण जास्त जागरूक असतात. मात्र धम्माला खऱ्या अर्थाने जो धारण करतो तो या सर्व दोषांपासून अलिप्तपणे वावरतो. व उथळ पाण्याच्या प्रवाहाप्रमाणे खळखळाट करीत नाही.


--- संजय सावंत ( नवी मुंबई ) 9768991724


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Friday, 15 April 2022

नालंदा विश्व विद्यापीठ

 नालंदा डायरी 2022 


हार्वर्ड ऑक्स्फर्ड केंब्रिज ही जागतिक  विद्यापीठे जन्माला आली नव्हती तेव्हा भारतात जगभरातून विद्यार्थी बौद्ध विद्यापीठ नालंदा येथे 

रसायन शास्त्र , 

खगोल शास्त्र , 

गणित शास्त्र , 

शरीर शल्य चिकित्सा शास्त्र , 

प्लास्टिक सर्जरी , 

यंत्रविज्ञान - तंत्रविज्ञान या सारखे 60 च्या वर विषय शिकण्या साठी येत होते .


मुख्य भाषा ही पाली होती आणि ज्ञान भाषा ह्या मुख्यत्वे पाली , प्राकृत , छंदस  ह्या भाषेतून मधून शिक्षण दिले जात होते . 


भगवान बुद्धां च्या ज्ञानाचा  प्रभाव या विद्यापीठातील शिक्षण पद्धती वर झालेला होता . 


नालंदा महाविहार येथे धम्म सेनापती सारीपुत्र यांचा महा स्तूप आहे . 

त्याची रचना आणि बुद्ध गयेतील महाबोधि महाविहार च्या स्थापत्य रचना जवळ पास सारखी होती असे अवशेषामध्ये दिसते . 

येथे अनेक अर्हँत भिक्षू भिक्षुनि बोधिचित्त अवस्था प्राप्त भिक्षूंचे स्तूप चैत्य येथे पाहायला मिळतात . 


येथे भगवान बुद्धाची बामीयान सारखी विशाल अशी 80 फूट उंच प्रतिमा होती त्याच्या पायाचे अवशेष तेवढे शिल्लक आहेत .

अनेक बोधिसत्व शिल्प येथे उत्खननात सापडले आहेत .


10000 विद्यार्थी 

1200 शिक्षक 

जवळ पास प्रत्येकी 7 -10 विद्यार्थ्याला शिकवायला एक शिक्षक नियुक्त केला गेला होता .


सर्व शिक्षक हे विद्वान  पंडित बौद्ध  भिक्षू होते . 

संपूर्ण विद्यापीठ हे निवासी विद्यार्थ्याचे विद्यापीठ होते .

एका रूम मध्ये एकच विद्यार्थी राहत असे .

प्रत्येक रूम मध्ये ग्रंथ ठेवण्यासाठी खास बुककेस (पुस्तक ठेवण्या ची जागा ) होते .

प्रत्येक रूम मध्ये ध्यान कक्ष (शुन्यागार होते ) 

10-20 विद्यार्थ्यासाठी कॉमन स्नान गृह होते .


सांडपाणी काढण्या साठी सिंधू कालीन स्थापत्या सारखी  नाली काढलेली आहे . 

संपूर्ण विद्यापीठ हे 9 ते 10 चौरस वर्ग  किलोमीटर मध्ये पसरलेले होते .


आपण आज उत्खनन करून पाहत असलेले विद्यापीठाचे अवशेष केवळ एक ते दीड चौरस वर्ग किलोमीटर चाच परिसर आपल्या ला दिसतो आहे .


अजून 9 चौरस वर्ग किलोमीटर जागेचे उत्खनन झालेले नाही . 

तेथे गाव आणि लोक वस्ती आहे . 

लोक हटन्यास तयार नाही . 

त्या  मुळे कोणता आणि किती इतिहास आपल्या ला माहीत नाही हे सांगता येत नाही .


बखत्यार खिलजी भारतात येण्या आधी अनेक वेळेस भारतातील वर्ण व्यवस्था मानणाऱ्या ब्राह्मणांनी विद्यापीठ बंद पाडण्याचे प्रयत्न केले ते यशस्वी झाले नाही म्हणून स्थानिक ब्राह्मणांनी बख्त्यार खिलजी ला आक्रमण करण्या चे आमंत्रण दिले . खिलजी च्या विजया साठी यज्ञ पवित् कर्म  कांड केले गेले आणि 9 मजली ग्रंथालयाला आग लावून संपूर्ण विद्यापीठ जाळले . 


येथे थेरवाद , महा यान , वज्र यान तिन्ही बौद्ध ज्ञान शाखेचे त्रिपिटक अभ्यासनारे बौद्ध भिक्षू  एकत्र राहत होते . 


नालंदा युगा मध्ये बौद्ध धम्माचा आणि अखंड जम्बुदीपातील  बौद्ध साम्राज्य पाडाव करण्या साठी वैदिक ब्राह्मण आणि जैन मुनी लोकांनी युती केली आणि त्यातूनच प्रति क्रांती करून मौर्य साम्राज्य नष्ट करण्या साठी शुंग ब्राह्मणाने कुटील कारवाया केल्या आणि तेव्हा पासून भारताचे तुकडे होत गेले भारत गुलाम बनत गेला . 


भारताला पुन्हा एकदा समृद्ध राष्ट्र म्हणून महा सत्ता म्हणून पुन्हा उभे व्हायचे असेल तर भारतीयांनी भगवान बुद्ध सम्राट अशोक आणि बोधिसत्व डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांच्या तत्व ज्ञानाला स्वीकारावेच लागेल .


(टीप:- जेव्हा बौद्ध स्थळांना भेटी देण्या साठी जाल तेव्हा तुमच्या सोबत Arvind Bhandare Shantaramji Ingle यांच्या सारखे जाणकार माहिती देणाऱ्या पाली भाषेचे बौद्ध स्थळांचे रिसर्च करणाऱ्या संस्थे सोबत नक्की जा .) 


नालंदा विश्व विद्यापीठ.

नालंदा युनेसको  हेरीटेज .

12/04/2022

महाराष्ट्राचे शिल्पकार सातवाहन

 महाराष्ट्राचे शिल्पकार सातवाहन आहेत. हे सह्याद्री मध्ये फिरताना पाहायला मिळते. 

महाराष्ट्रातील दुर्ग निर्मितीचे श्रेय हे सातवाहन सम्राटांना जाते. सातवाहन सम्राटांचे लिखित इतिहास कुणी पुस्तकरूपाने लिहला नसला तरी सातवाहन राजांच्या  अधिकाऱ्यांनी जिथे तिथे आपले अधिकार क्षेत्रात आपले शिलालेख कोरून ठेवले आहेत. किल्ल्यावर पाषाणात कोरलेली लेणी त्याचे  प्रमाण आहे. महाराष्ट्रातील व्यापारी बंदरे ही सातवाहनांच्या समृद्ध राज्याचे प्रतिनिधित्व करतात. सातवाहन  यांच्यापेक्षा महाराष्ट्रात इतर कोणता ही  राजा श्रेष्ठ ठरत नाही एवढे बलाढ्य कारकीर्द सातवाहन यांची आहे. सातवाहन हे बौद्ध राजे होते हे दुखणे असल्याने सातवाहनांच्या ऐवजी  दुसऱ्याच राजांना महाराष्ट्राचे निर्माते समजतात.  संपूर्ण महाराष्ट्रावर अधिराज्य असणारा सातवाहन एकमेव सम्राट आहे. ज्याचे राज्य महाराष्ट्राच्या संपूर्ण भूभागावर होते. मग सातवाहन दुर्लक्षित का? कोणी सातवाहन यांच्या जागेवर इतर राजा बसवला? प्रश्न निर्माण करण्याची आवश्यकता आहे. जर सातवाहन पुढे आले तर सातवाहन यांनी बुद्ध लेण्या स्तूप विहार निर्माण केली. महत्वाचे म्हणजे बुद्धांच्या शरीर धातू जतन केले. आणि आर्थिक सुबत्ता यावी म्हणून लोकांना उद्योग धंदे निर्माण  करून दिले. मोठमोठ्या बाजारपेठा निर्माण केल्या व्यापारी बंदरे निर्माण केली. गावापासून नगरांपर्यंत लोकांचा सोयी सुविधा निर्माण केल्या. इतरांचे कर्तुत्व काय?  

सातवाहन नंतर महाराष्ट्रात वाकाटक ते शिलाहार राजे होवून गेले. सातवाहन यांच्या काळात क्षत्रप देखील बौद्ध राजे महाराष्ट्रात होवून गेले. ह्या सर्वांनी बुद्धांच्या शिकवणीला सातासमुद्रालीकडे नेले. धम्म शिकवणीला अनुसरून दुःखमुक्त जीवन केले. पण वेळोवेळी हा इतिहास लपावला जातो. 

महाराष्ट्राचे हेच खरे  शिल्पकार आहेत. महाराष्ट्रात असलेले गडकोट ही देखील सातवाहन यांची  निर्मिती आहे. नंतर शिवाजी राजे यांनी सतराव्या शतकात त्याची डागडुजी करून घेतली. गडकोटांची देणगी ही खरी सातवाहन यांची आहे. लेण्या महाराष्ट्रात सातवाहन यांनी निर्माण केल्या. प्रसिद्ध व्यापारी बंदरे सातवाहन यांनी निर्माण केले. मोठ्या बाजारपेठा हे देखील सातवाहन यांनी निर्माण केले. शिक्षणासाठी स्वतःचा राजमहाल देणारे सातवाहन राजे आम्हाला का? सांगत नाहीत लोक. नागार्जुन यांनी विद्यापीठासाठी सातवाहन राजा गौतमपुत्र यज्ञ सिरी सातकर्णी  आम्हाला का लपवला जातोय. आमच्यावर  राजा ही थोपवला गेलाय आणि समाज सुधारक ही आमच्यावर थोपवले गेले. आमचा इतिहास च कधी आम्हाला समजू दिला जात नाही. किती भयाण परिस्थिती आहे. आम्हाला सहिष्णू बनून जर का चळवळ केली तर आमचा घात निश्चित आहे. आम्हाला आमच्या इतिहासाशी प्रामाणिक राहिले पाहिजे. थोपावलेले नेतृत्व जसे कामाचे नसते तसेच थोपवलेले हे राजे महाराजे देखील कामाचे नसतात.  बाबासाहेब हे कुण्या एका समाजाचे नाहीत मान्य पण बाबासाहेब समजल्यावर विषमतावादी धर्मात नांदणाऱ्या लोकांसाठी आम्ही आमचा इतिहास का लपवायचा. बाबासाहेब ज्यांना समजले ते धर्मांतर करण्यास मागेपुढे पाहणार नाहीत. पण स्वार्थासाठी बाबासाहेबांचा वापर करणारे लोक म्हणतील की, बाबासाहेब  यांना एका जाती मध्ये बांधू नका म्हणून. मला त्या सर्वांना एवढेच सांगावे वाटते की, बाबासाहेब हे बौद्ध होते, त्यांनी धम्माची दीक्षा दिली, ते बुद्धापुढे नतमस्तक झाले. विषमतेवर त्यांनी समता यावी म्हणून  बुद्ध धम्म दिला. आणि आम्ही बौद्ध आहोत आणि ही काही जात नाही. आशिया खंडाचा प्रमुख धर्म हा बौद्ध धम्म आहे. आशिया खंडाचा ४९ टक्के लोकसंख्या ही बौद्ध धर्मीय आहे. अश्यावेळी बाबासाहेब यांना एका जातीत  अडकवू नका म्हणणाऱ्या लोकांनी बाबासाहेब यांच्या सारखे धर्मांतर का करू नये. नुसते बाबासाहेब स्वीकारणे म्हणजे राजकीय लोकांसारखे आहे. या गोष्टींमुळे आम्ही आमचा इतिहास समजू शकलो नाही. बाबासाहेब यांनी सरळ इशारा दिलाय की बौद्ध धम्माचा इतिहास हाच तुमचा खरा इतिहास आहे. म्हणून  सातवाहन यांचा इतिहास समजून घ्या. या पुरोगामी बहुजनवादी लोकांनी सातवाहन कधी सांगितला नाही आम्हाला साडे तीनशे वर्षाच्या इतिहासात अडकवून ठेवले. आम्ही साडे तीनशे वर्षाच्या इतिहासातून मुक्त होवून  २३०० वर्षापूर्वीचा इतिहास समजून घ्यायला शिकले पाहिजे. बौद्ध लोकांनी सहिष्णू होवून इतिहासाची माती करू नका. 

आम्हाला राष्ट्रवादा सोबत बौद्ध धम्म आणि त्याचा दैदिप्यमान वारसा पण दिला आहे. 


महाराष्ट्रात आम्ही सातवाहन सम्राटांचे गुण गौरव गाऊ , सातवाहन राजांची कीर्ती गाऊ सांगू ह्या सह्याद्रीला पुन्हा त्याच्या गौरवाची गाथा.  सातवाहन कालखंड महाराष्ट्राच्या इतिहासातील सुवर्णयुग आहे. यासाठी सातवाहन सम्राटांना कोणत्या साम्राज्यावर आर्थिक लूट करावी लागली नाही. सातवाहन यांनी सर्वसामान्य माणसाला व्यापारी बनवले. 


आपलाच इतिहास  लपवू नका  मूठभर लोकांना खुश करण्यासाठी आपल्या इतिहासाचा गळा घोटून टाकू नका. 










मिनाक्खीपुत्र रविंदो सातकर्णी 

( मी सातवाहन यांना आमचा पूर्वज मानतो. सातकर्णी हे नाव माझ्या नावसोबत यापुढे नक्कीच जोडले जाईल. मी महाराष्ट्रात जन्माला आलो तो ही सातवाहन यांच्या राज्यात त्यामुळे सातवाहन यांना आम्ही आमचे पूर्वज मानतो.)

Wednesday, 13 April 2022

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांचे पालि भाषेला योगदान

 मित्रांनो,


उद्या डॉ.बाबासाहेब आंबेडकर यांची 130वी जयंती आपण साजरी करणार आहोत. त्यानिमित्त बाबासाहेबांचे पालि भाषा प्रेम आणि आपल्या सर्वांपर्यंत ती पोहचविण्यासाठी बाबासाहेबांनी घेतलेले कष्ट यासंदर्भात हा लेख "शहर मुंबई" मध्ये आज प्रसिद्ध झाला. नक्की वाचा


डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांचे पालि भाषेला योगदान


“कार्लाईलच्या मते सत्य हा थोर पुरुषाचा पाया आहे. मात्र जर सत्यनिष्ठा आणि बुध्दी बरोबरच समाजाच्या गतिमानते बद्दल तळमळ असेल तर हा पुरुष, महापुरुष होत असतो कारण महापुरुष समाजाच्या शुध्दीकरणाचे आणि प्रशासकाचे काम करीत असतो”. हे वाक्य आहे डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांच्या "रानडे, गांधी आणि जीना" या भाषणांमधील. हीच कसोटी जर आपण बाबासाहेबांच्या कार्याला लावली तर लक्षात येईल कि बाबासाहेबांना महापुरुष म्हणून का संबोधले जाते! बाबासाहेबांचा सामाजिक, आर्थिक, राजकीय आणि धार्मिक प्रवास हा थक्क करणारा आहे. असमतेने जातीपातीत विभागलेल्या आणि कायम शोषित राहिलेल्या समाजाला स्वातंत्र्य, समतावादी व मानवमुक्ती आणि कल्याणाचा मार्ग असलेल्या बौध्द धम्माची दीक्षा त्यांनी दिली. मात्र केवळ दीक्षा देऊन बाबासाहेब थांबले नाही तर “द बुद्ध अँड हिस धम्म” आणि “पालि व्याकरण व  शब्दकोश” सारखे  दोन अद्वितीय ग्रंथ लिहिले ज्यामुळे बाबासाहेबांचे पालि भाषेबद्दलचे प्रेम, आदर आणि दूरदृष्टी दिसून येते. या संदर्भात बाबासाहेब लिहितात,"बौद्धधम्माच्या प्रसाराबद्दल लोकांमध्ये ज्या दिवसापासून आतुरता उत्पन्न झाली आहे त्या दिवसापासून बौद्धधम्म म्हणजे काय, व त्याचे वाङ्मय काय आहे, व कोठे काय मिळते यासंबंधाने भारतीय जनतेमध्ये अतिशय मोठे कुतूहल दिसून येते". 

१९४० नंतर म्हणजे वयाच्या पन्नाशी नंतर बाबासाहेबांनी पालि व्याकरण व शब्दकोश लिहिला. त्यांचे हे काम अद्वितीय होते. हा ग्रंथ, महाराष्ट्र शासनाने १९९८ साली, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांच्या समग्र लेखन आणि भाषणे या मालिकेतील १६वा खंड म्हणून प्रकाशित केला आहे. जगातील विविध भाषांचे शब्दकोश गेल्या शंभर वर्षात अनेक भाषातज्ञांनी लिहिले आहेत. बाबासाहेबांच्या या ग्रंथाची तुलना, १७५५ मधे डॉ. स्यामुअल जॉन्सन यांच्या इंग्रजी शब्दकोशाशी केली जाते मात्र त्यात एक मोठा फरक आहे. डॉ.जॉन्सनने जेव्हा इंग्रजीचा शब्दकोश लिहिला तेव्हा इंग्रजी ही जागतिक भाषा होऊ पाहत होती तर बाबासाहेबांनी जेव्हा पालि शब्दकोश लिहिला तेव्हा पालि जवळपास एक मृत भाषा होती. आणि मृत भाषा प्रवाहात नसल्यामुळे त्यातील वेगवेगळे शब्द शोधून, त्यांचे अर्थ व वाक्य रचना करणे हे महाकठीण काम बाबासाहेबांनी केले. या ग्रंथाचे चार प्रमुख भाग असून पहिल्या भागात, पालि इंग्रजी शब्दकोश आहे, दुसऱ्या भागात पालि मराठी, इंग्रजी, गुजराथी आणि हिंदी या भाषांचा विस्तारित शब्दकोश आहे तर तिसऱ्या भागात पालि व्याकरण आणि चौथ्या भागात बौद्ध पूजापाठ आहे. एवढंच नव्हे तर पालि भाषेतील वाक्य रचना कशी करावी व दोन व्यक्तींमधील घरगुती अथवा व्यावसायिक संवाद पालि मधे कसा असावा हेही बाबासाहेबांनी दाखवून दिले आहे. त्यामुळे हा शब्दकोश जगातल्या इतर सर्व शब्दकोशांपेक्षा वेगळा ठरतो. चाईलडर्सने पालि इंग्रजीमधे शब्दकोश लिहिला होता पण सर्वसामान्य भारतीयांसाठी त्याचा उपयोग नव्हता. पालिमधे कच्चायन व्याकरण सर्वात जुने आहे. पालि व्याकरणासह वाक्यरचनेवर, त्याच्या धातू आणि प्रत्येयावर अनेक प्राचीन ग्रंथ आहेत. त्यामुळे पालिभाषेचे व्याकरण लिहीत असताना बाबासाहेबांना प्रचंड अभ्यास करावा लागला. या सर्व ग्रंथांचा अभ्यास करून, त्याची अतिशय सोप्या पद्धतीने मांडणी करून, सर्वसामान्यांना देखील समजेल असे व्याकरण आणि त्याची वाक्यरचना असे विलक्षण काम बाबासाहेबांनी आपल्या ग्रंथात केले आहे. त्यामुळे पालि भाषा व तिचे व्याकरण शिकताना सोयीचे जाते. भविष्यात भारतात बौध्द धम्माचे आकर्षण वाढेल आणि बुध्दविचार समजून घेण्यासाठी लोक पालि भाषा शिकतील हा दूरदृष्टीपणा ठेऊन बाबासाहेबांनी पालि शब्दकोश व व्याकरण हा ग्रंथ लिहिला जो आजही पालि भाषा शिकण्यासाठी महत्त्वपूर्ण आहे.   

सम्राट अशोक यांनी महिन्द आणि संघमित्ता यांना श्रीलंकेत बुद्धविचारांचा प्रसार करण्यास पाठविले. भन्ते महिन्द यांनी त्यांच्याबरोबर पालि त्रिपिटक आणि त्याच्या अठ्ठकथा घेऊन गेले. कालांतराने त्यांनी ते सिंहली भाषेत भाषांतर केले. काही कारणास्तव मूळ पालि अठ्ठकथा नष्ट झाल्या. त्यावेळेस इ.स. ५व्या शतकात, अत्यंत विद्वान, बौद्ध आचार्य बुद्धघोष यांनी श्रीलंकेत जाऊन या सर्व सिंहली अठ्ठकथांचे भाषांतर पालि भाषेत केले. चाईल्डर्सच्या म्हणण्यानुसार, आचार्य बुद्धघोष यांच्या सारख्या विद्वान पालिभाषेच्या आचार्यांनी अठ्ठकथा पुन्हा पालिभाषेत लिहून संपूर्ण जगावर, विशेषतः बौद्ध तत्त्वज्ञानाच्या अभ्यासकांवर मोठे उपकार केले आहेत. कालांतराने बुद्धविचार जसे शेजारील देशांत पोहचले तसे पालि त्रिपिटक आणि अठ्ठकथांच्या प्रति थायलंड, बर्मा व इतर देशांत पोहचल्या. बुद्धघोषांनी लिहिलेले मूळ अठ्ठकथा आणि अर्हत महिन्द यांच्या सिंहली भाषेतील पालि त्रिपिटक हे श्रीलंकेतील अनुराधापुर येथील विहारात ठेवल्या होत्या. १२व्या शतकात श्रीलंकेवर आक्रमण केलेल्या चोला राजांनी अनुराधापुर लुटले. ते बुद्धविचारांचे विरोधक असल्याने त्यांनी सर्व बौद्ध ग्रंथ नष्ट केले. यात अर्हत महिन्द यांचे सिंहली भाषेतील त्रिपिटक आणि बुद्धघोष यांच्या पालि अठ्ठकथा नष्ट करण्यात आल्या. मात्र हे पालि ग्रंथ इतर देशांत सुरक्षित असल्याने नंतरच्या काळात त्यांचा प्रसार जगभर झाला. द बुद्ध अँड हिस धम्म हा ग्रंथ लिहिताना बाबासाहेबांना संपूर्ण त्रिपिटक आणि इतर बौद्ध ग्रंथ वाचावे लागले. त्यावेळेस, त्यांनीच लिहिलेल्या पालि व्याकरण व  शब्दकोश या ग्रंथाचा उपयोग त्यांना झाला.  

द बुद्ध अँड हिस धम्म हा ग्रंथ लिहिताना बाबासाहेबांनी संपूर्ण पालि त्रिपिटकाचा अभ्यास केला होता याची साक्ष या ग्रंथाच्या प्रत्येक पानावर दिसते. त्याकाळी अस्पृश्य म्हणून हिणवले गेलेल्या समाजाला बौद्ध धम्माची दीक्षा द्यायची हे बाबासाहेबांनी निश्चित केलेच होते, मात्र नवदीक्षित झालेल्या समाजाला तसेच ज्यांना बुद्धविचार समजून घ्यायचेत त्यांच्यासाठी सोप्या भाषेतील ग्रंथ त्यांना लिहायचा होता. १९५० ते ५६ या कालावधीत, बाबासाहेबांनी प्रकृती साथ देत नसतानाही अतिशय सखोल आणि तार्किकरित्या हा ग्रंथ निर्माण केला. पालि त्रिपिटकामधे काही विरोधभासी वाक्यांवर बाबासाहेबांनी प्रश्न उपस्थित केले व भ.बुद्धांच्याच पालिवचनांचा आधार घेत स्पष्टीकरणही दिले. या ग्रंथात बाबासाहेबांनी तळटीप न दिल्यामुळे अंतराष्ट्रीय स्तरावर काही जणांनी या ग्रंथावर शंका घेतली, मात्र १९६१ मधे डॉ.भदन्त आनंद कौसल्यायन यांनी बाबासाहेबांच्या ग्रंथातील कोणते वाक्य त्रिपिटक मधील कोणत्या सुत्तातील आहेत हे शोधून काढले व बाबासाहेबांनी लिहिलेला द बुद्ध अँड हिस धम्म या ग्रंथाला पालि त्रिपिटकच आधार असल्याचे सिद्ध केले. पालि त्रिपिटक हे तुलनेने प्रचंड आहे. बायबल पेक्षा ११ पटीने मोठे आहे. पिढी दर पिढी मौखिक रूपाने बुध्द वचनांचा प्रसार होत होता. त्यामुळे नकळतपणे त्यात काही अघटीत घटनांचा उल्लेख आला आहे. बाबासाहेबांनी अशा प्रत्येक घटनेचे खंडन केले आहे व सर्वसामान्यांना बोध होईल असा बुध्दांचा इतिहास आणि त्यांचा धम्म लिहिला.  महापंडित राहुल सांकृत्यायन यांच्या शब्दात सांगायचे झाल्यास 'बाबासाहेब आंबेडकरांनी भारतात बौध्द धम्म पुनर्जीवित करताना असा खांब रोवला आहे कि कोणी तो हलवू शकणार नाही. बौध्द धम्म आणि बौध्द समाजासाठी जे योगदान बाबासाहेबांनी नागपूर येथे दीक्षा देऊन केले त्यापेक्षा कैक पटीचे योगदान बाबासाहेबांनी हे दोन ग्रंथ लिहून दिले आहे'. डॉ.बाबासाहेबांना १३०व्या जयंतीदिनी “खरी आदरांजली” अर्पण करायची असेल, तर पालि भाषा आणि बौद्ध संस्कृतीचा अभ्यास करून, आपण ती द्यायला हवी! तरच या महापुरुषाच्या कष्टाचे चीज होईल.  


अतुल भोसेकर

९५४५२७७४१०

Friday, 1 April 2022

शील धर्म

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*_शील धर्म_*

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                  _शील धर्म पालन करणे म्हणजे सामाजिक व्यवस्थेचे पालन करणे. संपूर्ण समाजाची व्यवस्था कोणत्याही एका संप्रदाय विशेषाची व्यवस्था नाही. म्हणून शीलधर्मावर कोणत्याही एका संप्रदाय-विशेषाचा एकाधिकार नाही. शील-सदाचाराचे पालन सर्व संप्रदायांना मान्य आहे. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी आहे. समाजाची सुव्यवस्था कायम राखण्यात त्याची स्वतःची सुरक्षितता निश्चित आहे. समाजाची सुख-शांती राखण्यात त्याची स्वतःची सुख-शांती निश्चित आहे._

              _जेव्हा एखादी व्यक्ती हत्या करते, दुसऱ्याची वस्तू चोरते. व्यभिचार करते, खोटे बोलते, मद्याने धुंद होते तेव्हा सामाजिक व्यवस्था अस्ताव्यस्त करते. सामाजिक सुख-शांती भंग करते. याच्या उलट जेव्हा ती पंचशील पालन करते तेव्हा ती सामाजिक सुव्यवस्था स्थिर करण्यात मदत करते. सामाजिक सुख-शांती कायम राखण्यात मदतनीस होते. परंतु असे केल्याने ती कोणावर उपकार करीत नाही. इतरांबरोबर आपले देखील भले करते. हाच शीलधर्म आहे. सामाजिक धर्म आहे. म्हणूनच सर्वधर्म आहे._

             _पंचशीलाचे योग्यप्रकारे पालन करण्यासाठी मन वश करणे आणि ते विकार-विहीन ठेवणे, निर्मळ ठेवणे अत्यंत आवश्यक आहे. यासाठी विपश्यना आहे. तिच्या अभ्यासाने मन संयमित होते, निर्मळ, शुद्ध होते, सद्गुणसंपन्न होते. विपश्यनेमुळे शीलपालन सोपे होते. शील पालनाने साधना करणे सोपे जाते. दोन्ही एकमेकांवर अवलंबून आहेत. साधनेचा अभ्यास पुष्ट करण्यासाठी जेव्हा आम्ही काही दिवस इतर सर्व प्रवृत्ती बंद करून गंभीरतेने निरंतर अभ्यास करण्याचा निर्णय घेतो तेव्हा एखाद्या साधना शिबिरात भाग घेतो. परंतु लागोपाठ पुष्कळ दिवस एखाद्या शिबिरात वारंवार जाणे शक्य नसेल तर आठवड्यात, पंधरवड्यात अथवा महिन्यात तरी एक दिवस घरी अथवा एखाद्या निवांत जागी साधनेचा निरंतर अभ्यास करणे आवश्यक आहे. अशावेळी पाच शील तर पाळावीच परंतु या व्यक्तीरिक्त आणखी तीन शील ग्रहण करतात - विकाल भोजन म्हणजे दुपारनंतर जेवत नाहीत, शृंगार प्रसाधने व आमोद-प्रमोद यांचा त्याग करतात, विलासी बिछान्यावर झोपत नाहीत. यामुळे साधनेत खूप मदत मिळते._

          _वरील पाच शीलाप्रमाणे ही तीन शीलही सार्वजनिक सामाजिक व्यवस्थेमध्ये यांचा सरळ संबंध नसेल परंतु व्यक्ती-व्यक्तीला सुधारण्यात यांचा मोठा वाटा आहे. यामुळे मन संयमित होते. साधेपणाचा सद्गुण पुष्ट होतो. त्याग भावना प्रबळ होते आणि सर्वात प्रमुख गोष्ट ही की यांच्या मदतीने साधनेत घहनता गाठणे शक्य होते. त्यामुळे साधक सर्व तर्हेचे लाभ प्राप्त करतो व्यक्तिला लाभ झाला तर समाजाला लाभ होतो. व्यक्ती-व्यक्तित सुधारणा झाली तर संपूर्ण समाज सुधारतो._

      _शील पालन केल्याने प्रत्यक्षात आपले जीवन सुधारते, लोक सुधारतो, लोक सुधारल्याशिवाय परलोक कसा सुधारणार? म्हणून असा विश्वास ठेवता येतो की शील पालनाने जर आपला लोक सुधारत असेल तर परलोक देखील सुधारत असणार._

         _ज्या शिलांचे पालन केल्याने व्यक्ती आणि समाज दोन्ही सुधारतात, लोक परलोक दोन्ही सुधारतात त्यांचे पालन करण्यात हजार संकटे आली तरी आपण त्यांचा सामना केलाच पाहिजे. जोपर्यंत सर्व शिलांचे पालन करण्यात संपूर्ण यश मिळत नाही तोपर्यंत जितक्या शिलांचे पालन करणे शक्य असेल तितकी मनापासून पाळावीत आणि बाकीच्यांचे पालन करण्याचा प्रयत्न करीत रहावे; व हळू हळू धर्म पथावर पुढे जाण्याचा दृढ संकल्प करावा, यातच आपले सर्वांचे मंगल सामावले आहे._

_*मंगल होवो! कल्याण होवो! भले होवो!*_

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*_संदर्भ :- मंगलमय गृहस्थ जीवन_*
*_संकलन :- महेश कांबळे_*
*_०१/०४/२०२२_*
https://mikamblemahesh.blogspot.com/2022/04/blog-post.html

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कोलित सुत्त

🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼 *_कोलित सुत्त_* https://mikamblemahesh.blogspot.com/2025/06/blog-post_41.html 🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼  _'कोलित सुत...