“वैशाख पूर्णिमा” पर सिद्धार्थ गौतम को “बुद्धत्व” कैसे प्राप्त हुआ; उस रात क्या हुआ/घटा !!
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“वैशाख शुक्ल चतुर्दशी की रात” (यानि बोधि पूर्णिमा की पिछली रात) का उषापूर्व के समय –सिद्धार्थ गौतम को निन्द्रित अवस्था में पांच सुखद स्वप्न प्रकट हुए (अंगुत्तरनिकाय – 2.5.196) जो कि उनके सुफल भविष्य की ओर संकेत करने वाले पूर्वाभास थे.
गृह-त्याग के बाद लगभग साढे़ पांच वर्षों तक वे अपनी श्वास को और शरीर की क्रियाओं को नियंत्रित करने का प्रयास करते रहे जो की प्राकृतिक स्वभाव के अनुरूप न होकर कृत्रिम था जबरदस्ती काबू में करने का प्रयास था. पिछले छ: माह से सहज स्वाभाविक श्वास और शरीर पर होने वाली अनुभूति (संवेदनाओं) को तटस्थ भाव से दृष्टा भाव से अनुभव करने का अभ्यास कर रहे थे.
प्रतिदिन दोपहर पूर्व भिक्षान्न लेकर ध्यान में लीन हो जाते. सबसे पहले विचारों के प्रति और सजगता का विकास किया, मन के विचारों के साथ शरीर पर होने वाली प्रत्येक संवेदनाओं के साथ सजग, शरीर और चित्त के प्रपंच के प्रति सजग, आठों पहर उठते-बैठते, चलते-फिरते हर समय सजग रहते-रहते देखा कि शरीर और चित्त छोटे-छोटे अणु परमाणुओं का पुंज मात्र है जो हर पल बन बिगड़ रहे हैं. चुटकी बजाएं या पलकें झपकें इतनी देर में शत सहस्त्र कोटि बार उत्पाद होकर नष्ट हो रहे हैं. यह प्रक्रिया इतनी तेज गति से हो रही है कि कम्पन का अनुभव न होकर शरीर के ठोस होने का आभास होता है. बाह्य जगत पर मन और शरीर प्रतिक्रिया कर रहे हैं. उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि सारे दु:ख हमारी इस साढे़ तीन हाथ की काया और उससे जुड़े चित्त में ही उत्पन्न हो रहे हैं. ध्यानावस्था में उन्होंने देखा कि मन और शरीर की कोई भी स्थिति स्थाई नहीं है. हर भाव, विचार या अवस्था कुछ देर रहती है और फिर अपने आप, दूसरा भाव, विचार या अवस्था आ जाती है. सब कुछ परिवर्तित हो रहा है, परिवर्तनशील है, अनित्य है. जीवन की अनित्यता ही दु:ख का प्रमुख कारण है. मनचाहा नहीं होना, अनचाहा होना, प्रिय से वियोग, अप्रिय से संयोग सब दुःख है. बोधिसत्व की साधना प्रगति पर थी. बुद्धत्व का मार्ग बहुत लम्बा और धीमा होता है. खैर...।
सुजाता की खीर:
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वैशाख पूर्णिमा की संध्या पर सिद्धार्थ; निरंजना नदी के किनारे वटवृक्ष के तले ध्यानस्थ थे. वहीँ उरुवेला वनप्रदेश के सेनानी नामक धनी की पुत्री सुजाता को इसी विशाल वटवृक्ष के देवता के प्रति पूर्ण विश्वास था कि वटदेव की कृपा से ही वाराणसी के श्रेष्ठी के यहाँ उसका विवाह हुआ और उसी की कृपा से बीस वर्ष पूर्व उसे एक पुत्र भी प्राप्त हुआ. इसका उपकार मानते हुए प्रत्येक वैशाख पूर्णिमा को अपने इष्ट वटवृक्षदेव की आराधना करती. इस बार सुजाता ने अपने आराध्य वटदेव के भोग के लिए बहुत ही स्वादिष्ट खीर बनायी थी. उसका पुत्र भी गृहस्थ हो गया था. परन्तु उसे गृहस्थ जीवन के प्रति कोई रूचि नहीं थी. अतः वह अन्य युवकों की भाँती सांसारिकता की ओर आकृष्ट हो वटदेव से यह प्रार्थना करने आयी थी. जैसे ही उसने युवा तपस्वी (सिद्धार्थ गौतम) को देखा देखते ही जान लिया कि यह “वृक्ष का देवता” (जैसा की उसकी ने बताया था) नहीं है बल्कि किसी ऊँचे कुल से गृह त्यागा तपस्वी है. उसे खीर भेंट कर अत्यंत हर्षित हुयी. युवा तपस्वी को देखकर उसके भीतर वात्सल्य-भाव जागा, खीर अर्पण करते हुए सुजाता ने आशीर्वाद दिया कि हे युवा तपस्वी - “तुम्हारी तपस्या सफल हो”. बोधिसत्व का यह अंतिम भोजन था, अगली रात उसे “सम्यक सम्बोधि” प्राप्त होनी थी, अतः यह भोजन दान महत्वपूर्ण माना जाता है.
मार की हार:
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सुजाता की खीर ग्रहण करने के बाद स्वर्ण पात्र को नदी में प्रवाहित करते हुए “सत्य-क्रिया” की कि यदि यह पात्र नदी के प्रवाह के विपरीत जायेगा तो उसका तप सफल होगा, ओर ऐसा ही हुआ भी. बोधिसत्व दिन ढलने के पहले “पीपल” के वृक्ष के नीचे पद्मासन लगाकर, इस दृड़ निश्चय के साथ बैठा, कि जब तक मुझे सम्बोधि प्राप्त नहीं होती इसी आसन पर अडिग बैठा रहूँगा. चाहे मेरे शरीर के मांस, मज्जा और रक्त सभी सूख जायँ, तब भी मै अविचलित रहूँगा. मृत्युराज “मार” को लगा कि इस साधना द्वारा यह मेरे जन्म-मरण के भवसंसरण के साम्राज्य-क्षेत्र से बाहर निकल जाएगा. अतः उसने बहुत बड़ी मायावी सेना लेकर बोधिसत्व को भयभीत करने का प्रयास किया और उसके आसन पर अपना हक जताया. तब बोधिसत्व ने कहा कि मैंने सभी पारमिताओं का संचय पूरा कर लिया है पृथ्वी इसकी साक्षी है, इस “सत्यघोषणा” से पृथ्वी में कम्पन्न हुआ और मार भयभीत होकर अपनी सेना के साथ पलायन कर गया.
पौराणिक वर्णन एक ओर – “पापमयी चैतसिक दुर्बलताओं को धर्ममयी बोधि की सबलताओं से हराया जा सकता है. बोधिसत्व का देवपुत्र मार से युद्ध वस्तुतः धर्मं का अधर्म से, सद्गुणों का दुर्गुणों से युद्ध था. इस युद्ध में धर्मं की जीत हुयी”.
बुद्धत्व प्राप्ति
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वैशाख पूर्णिमा की संध्या बीतने के पूर्व ही पापी मार पराजित होकर पलायन कर गया. वातावरण से समस्त नकारात्मकता विलुप्त हो गयी और पूरा वातावरण “बोधिमंड” में परिवर्तित हो गया – अपरिमित शान्ति में परिणत हो गया. पश्चिम में सूर्य का गोलक धीर-धीरे अस्तांचल की ओर ढलता चला गया. पूर्व के क्षितिज से वैशाख पूर्णिमा का चाँद शनैः-शनैः ऊपर उठने लगा और सारे अंतरिक्ष पर शीतल चाँदनी बिखेरकर वातावरण को मनोरम बनाने लगा. अब बोधिसत्व निर्विध्न ध्यान में लग गया.
क्षण-प्रतिक्षण की सजगता का अभ्यास करते-करते सिद्धार्थ का चित्त, शरीर और श्वास-प्रश्वास पूरी तरह एकाकार हो गया था. लगातार ध्यान और सतत जागरूकता के कारण उनको चित्त को एकाग्र कर शरीर के अणु-अणु का निरिक्षण करने की अद्भुत शक्ति प्राप्त हो गयी थी. वह शरीर और चित्त के एक-एक अणु-परमाणु को बींधकर, भेदकर उसके पार जा सकते था. अनात्मभाव के प्रत्यक्ष अनुभव से सिद्धार्थ की अंतर्दृष्टि और अधिक तीक्ष्ण व पैनी हो गयी थी.
रात्री का प्रथम याम:
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रात्रि के प्रथम याम में बोधिसत्व प्रथम ध्यान में समाहीत होने के पश्चात क्रमशः दुसरे, तीसरे और चौथे ध्यान में स्थापित हो गया. रात के प्रथम याम में ही बोधिसत्व को अधोलिखित ज्ञान का साक्षात्कार हुआ:-
१. इद्धिविध (रहस्यात्मक शक्तियाँ) – एक सत्व से अनेक होना, अंतर्ध्यान होना, पानी पर चलना, आकाश में विचरण, शक्तिशाली ग्रहों का हाथ से स्पर्श, और सुदूर ब्रम्हलोक तक सशरीर यात्रा. (रिद्धि-सिद्धि)
२. दिब्ब सोतधातु (श्रवण की दैवीय क्षमता) – दूरवर्ती एवं निकट की दिव्य और मानुषिक ध्वनियों को सुना जा सकता है.
३. परस्स चेतोपरीयञाण (परचित्त ज्ञान) – दुसरे प्राणियों और मनुष्यों के चित्त को अपनी मन:शक्ति से वेध कर उनके चित्त की अवस्थाओं को जान लेना.
४. पुब्बेनिवासानुस्सति (पूर्व जन्मो की स्मृति) – पूर्व जन्मों को समस्त आकारों, विवरणों और विभिन्न अस्तित्वों में विस्तार से स्मरण कर पाना.
५. दिब्ब चक्खु (दिव्यदृष्टि) – प्राणियों की शरीर-च्युति (मरण) एवं उत्त्पत्ति (पुनः जन्म) को विवरणसहित जान पाना. (मरणोपरांत गति जान लेना).
महत्वपूर्ण नोट => (ये पांचो शक्तियाँ सांसारिक या लौकिक (लोकिय) स्तर की है क्योंकि इनको समाधि की पूर्ण परिष्कृत अवस्था में भी प्राप्त किया जा सकता है.
पतंजलि के अनुसार:- उच्च इन्द्रियगत शक्तियाँ समाधि की प्राप्ति में बाधक होती है.
वाचस्पतिमिश्र के अनुसार:- एकाग्रचित्त योगी को इन सिद्धियों से बचना चाहिए.
बुद्ध के अनुसार:- अलौकिक शक्तियां अंतर्दृष्टि की अवरोधक ही होती हैं – यद्यपि एकाग्रता के लिए नहीं, क्योंकि एकाग्रता से ही इन्हे प्राप्त किया जाता है. खैर ...)
रात्री का द्वितीय याम:
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रात्री के द्वितीय याम व तृतीय याम में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य का साक्षात्कार हुआ जो की बोधिसत्व की सबसे महत्वपूर्ण, मूल्यवान और अनमोल खोज है, वह है – “प्रतीत्य-समुत्पाद”, बारह कड़ियों वाला “कार्य-कारण का सिद्धांत” (The Law of Dependant Origination), दु:ख की उत्त्पत्ति का कारण “अनुलोम” - (अवरोहण:पतनोन्मुख) और उसका निवारण “प्रतिलोम” – (आरोहण:उन्नोन्मुख), बुद्ध की देशना में “प्रतीत्य-समुत्पाद” का सर्वोच्च स्थान है. आषाढ़ पूर्णिमा के दिन उनका पहला उपदेश सारनाथ में हुआ. यह उपदेश “धर्मचक्र-प्रवर्तन-सूत्र” नाम से विख्यात है. प्रतीत्य-समुत्पाद के ज्ञान के बिना निर्वाण की प्राप्ति स्वप्न में भी संभव नहीं. कार्य-कारण – समुत्पाद - यानी साथ में ही उत्पन्न होते हैं. संक्षिप्त में “प्रतीत्य-समुत्पाद” निम्न है:- (विस्तृत विवरण फिर कभी).
A) प्रतीत्य-समुत्पाद का “अनुलोम” - (अवरोहण:पतनोन्मुख)
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१. अविज्या-पच्चया संखारा:- (अविद्या के कारण संस्कार (कर्म संस्कार) उत्पन्न होते है.)
२. संखार-पच्चया विञ्ञानं:- (संस्कारों के कारण विज्ञान (संचित संस्कारों का प्रवाह) उत्पन्न होता है.)
३. विञ्ञान-पच्चया नामरूपं:- (विज्ञान के कारण नाम-रूप (चित्त व शरीर की धारा) का उदय होता है.)
४. नामरूप-पच्चया सळायतनं:- (नामरूप के कारण छह आयतन (छः इन्द्रियां- आँख, कान, नाक, जिव्हा, काया, मन) उत्पन्न होते हैं.
५. सळायतन-पच्चया फस्सो:- (छह आयतनों के कारण स्पर्श (छहों इन्द्रियों का अपने-अपने विषय से स्पर्श) होता है.)
६. फस्स-पच्चया वेदना:- (स्पर्श के कारण संवेदना (विषयों के स्पर्श से शरीर में सुखद या दुखद संवेदना) उत्पन्न होती है.)
७. वेदना-पच्चया तण्हा:- (संवेदना के कारण तृष्णा (प्रिय संवेदना को बनाए रखने की जिसे राग कहें, अप्रिय संवेदना को दूर करने की जिसे द्वेष कहें) जागती है.)
८. तण्हा-पच्चया उपादानं:- (तृष्णा के कारण उपादान (आसक्ति अतिरेक) जागता है.)
९. उपादान-पच्चया भवो:- (उपादान (आसक्ति) के कारण भवसंस्कार (प्रकृति में जो भव-भव चल रहा है) उत्पन्न होते हैं.)
१०. भव-पच्चया जाति:- (भवसंस्कार के कारण पुनर्जन्म/जन्म होता है.)
११. जाति-पच्चया जरा-मरणं-सोक-परिदेव-दुक्ख-दोमनास-उपायासा संभवन्ति:- (पुनर्जन्म/जन्म के कारण बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, परिताप, दु:ख, दौर्मनस्य, बेचैनी और रुदन का प्रादुर्भाव अनिवार्य है.)
१२. एवमेतस्स केवलस दुक्खखन्धस्स समुदयो होती:- (अत: केवल इन्हीं (१ से ११ तक समुदय – साथ में उदय) संधियों के कारण दु:खों का ढेर/पहाड़ उत्पन्न हो जाता है.)
अविद्या पूर्वजन्म की क्लेशदशा है. अविद्या मोतियाबिंदु है जानने योग्य स्थानों/बातों का ज्ञान नहीं होने देता. प्राणी; मात्र अज्ञान के कारण अनेक प्रकार के दु:ख और कष्ट भोगते हैं. लोभ, मोह, अहंकार, भय, राग, द्वेष – सभी की जड़ अविद्या/अज्ञान है. अविद्या के आवरण के कारण ही सत्व संसार-चक्र में घूमते रहते हैं. “जातिपि दुक्खा” – जन्म ही दु:ख-सत्य है, भले वह मनुष्य, देव या ब्रह्मलोक में हुआ हो.
रात्री का तृतीय याम:
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😎 प्रतीत्य-समुत्पाद का प्रतिलोम” – (आरोहण:उन्नोन्मुख),
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रात्री के तृतीय याम में अज्ञान के दूर होने से राग, द्वेष, मोह इत्यादि समूल नष्ट हो गए.
१. अविज्ज्याय त्वेव असेस-विराग-निरोधा – संखार निरोधो:- (अविद्या (अज्ञान) के संपूर्णतः निरोध करने से कर्म-संस्कारों का निरोध हो जाता है.)
२. संखार निरोधा – विञ्ञान निरोधो:- (संस्कारों के निरोध से विज्ञान (संचित संस्कारों का प्रवाह) का निरोध हो जाता है.)
३. विञ्ञान निरोधा – नामरूप निरोधो:- (विज्ञान के निरोध से नामरूप (चित्त और शरीर) का निरोध हो जाता है.)
४. नामरूप निरोधा – सळायतन निरोधो:- (नाम रूप के निरोध से छः इन्द्रियों का निरोध हो जाता है.)
५. सळायतन निरोधा – फस्स निरोधो:- (छः इन्द्रियों के निरोध से स्पर्श का निरोध हो जाता है.)
६. फस्स निरोधा – वेदना निरोधो:- (स्पर्श के निरोध से वेदना का निरोध हो जाता है.)
७. वेदना निरोधा – तण्हा निरोधो:- (वेदना के निरोध से तृष्णा का निरोध हो जाता है.)
८. तण्हा निरोधा – उपादान निरोधो:- (तृष्णा के निरोध से उपादान (गहरी आसक्ति) का निरोध हो जाता है.)
९. उपादान निरोधा – भव निरोधो:- (उपादान (गहरी आसक्ति) के निरोध से भव का निरोध हो जाता है.)
१०. भव निरोधा – जाति निरोधो:- (भव के निरोध से पुनर्जन्म का निरोध हो जाता है.)
११. जाति निरोधा - जरा-मरणं-सोक-परिदेव-दुक्ख-दोमनास-उपायासा निरुज्झन्ति:- (पुनर्जन्म के निरोध से बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, परिताप, दु:ख, दौर्मनस्य, बेचैनी और रुदन का निरोध हो जाता है.)
१२. एवमेतस्स केवलस दुक्खखन्धस्स निरोधो होती:- (इस प्रकार सारे के सारे दु:ख समुदय (१ से ११ तक) का निरोध हो जाता है.)
बोधिसत्व को इसी दौरान एक अन्य नैसर्गिक नियम का साक्षात्कार हुआ कि मन में कुछ भी जागे, उसके साथ-साथ शरीर में कोई-न-कोई संवेदना जागनी अवश्यम्भावी है. यह तथ्य भी उस युग में लोक-विदित नहीं था. कायिक संवेदनाओं की अवहेलना करने से मुक्ति प्राप्त करना असंभव है. संवेदनाओं के प्रति सजग रहकर तटस्थता बनाए रखने से चित्त-गुम्फित कर्म-संस्कार निर्जरित हो जाते हैं.
रात्री का अंतिम याम:
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बोधिसत्व जब रात्री के अंतिम याम में पहुंचा तब उसे आस्रव-क्षय, यानी चित्तमल के बहाव के नितांत क्षय हो जाने का अभिज्ञान प्राप्त हुआ. “आसवक्खयकरञाण” (चित्त-मलों की समाप्ति का ज्ञान) - चित्त-मलों (आस्रवों) का उन्मूलन कर चित्त-मुक्ति की उस अवस्था में प्रवेश-कर टिके रहना जो चित्त-मलों से पूर्णतया मुक्त हो. (इस जीवन में भी अपने उच्च ज्ञान के परिणामस्वरूप मुक्त होकर इसका साक्षात्कार किया जा सकता है.) ऐसा होने पर जब सभी लोकों से परे (लोकोत्तर) वास्तविक नित्य, शाश्वत, ध्रुव का परिपूर्ण साक्षात्कार हुआ तब साथ-साथ सर्वज्ञता का महाज्ञान जागा. वे इन्द्रियातीत अवस्था में चले गए और अनुत्तर (सर्वोच्च) अवस्था को प्राप्त हो गए. जिसे इन्द्रियों के माध्यम से बताया नहीं जा सकता.
बोधिसत्व को ऐसी अनुभूति हुयी जैसे हज़ारों योनियों के कारागार से आजादी मिल गयी हो. सम्यक सम्बोधि प्राप्त हुयी, भवमुक्ति सिद्ध हुयी, निर्वाण का साक्षात्कार हुआ. यों वैशाख पूर्णिमा की रात पूरी होते-होते तपस्या सफल हुयी. इस भद्रकल्प का चौथा सम्यक सम्बुद्ध प्रकट हुआ. सिद्धार्थ गौतम “सम्यक-बुद्ध” बन गया , अपने स्वयं के प्रयासों से “बुद्ध” बना. अनेकों के कल्याण का द्वार खुला. धन्य हुयी वैशाख पूर्णिमा. इति ....
- परम पूज्य सत्यनारायण गोयनका "विपस्सनाचार्य"
- विपश्यन विशोधन विन्यास "इगतपुरी"
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