।।वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नाथपंथ और बौद्घ परम्परा की प्रासंगिकता।।
-राजेश चन्द्रा-
आज की सत्य घटना कल इतिहास बनती है। लम्बे अन्तराल के बाद इतिहास कहानी बन जाता है। लम्बी अवधि के बाद कहानी कथा बन जाती है, फिर एक समय आता है कि कथा प्रतीक बन जाती है और प्रतीक मिथक बन जाता है या बना दिया जाता है। इतिहास विस्मृत हो जाता है।
एक बार एक विश्वविद्यालीय संगोष्ठी में विषय दिया गया - बौद्घ दर्शन का जनमानस पर प्रभाव। बहुत-सी महिला प्राध्यापक, शोधार्थी व छात्राएं भी प्रतिभागी थीं।
मैंने कहा, हमारी विवाहित माताएं, बहनें, बेटियाँ एक आभूषण अपने गले में धारण करती हैं जिसे मंगलसूत्र कहते हैं। आपको पता नहीं होगा कि यह एक बौद्घ प्रतीक है। भारतीय मूल के लगभग हर समाज में यह आभूषण लोकप्रिय है- हिन्दू, पंजाबी, सिन्धी, जैन, बौद्घ… इस्लाम व इसाइयत को छोड़ कर लगभग हर भारतीय मूल के समाज में विवाह के समय वधु के गले में पहनाया जाने वाला यह सबसे लोकप्रिय व अनिवार्य आभूषण है।
लोगों को मालूम ही नहीं है कि यह एक बौद्ध प्रतीक है।
बारहवीं शताब्दी तक भारत में बुद्ध धम्म अपनी पूरी प्रभा से चमक रहा था। उस काल में विवाह आदि मांगलिक अवसरों पर एक सुत्त का पाठ किया जाता था जिसे महामंगल सुत्त अथवा मंगल सूत्र कहा जाता था। इस सुत्त में भगवान बुद्ध के द्वारा गृहस्थ जीवन की अड़तीस मंगलकारी बातें बतायी गयी हैं। क्योंकि आपका जीवन मंगलमय हो, नव वर्ष मंगलमय हो… ऐसा कहते तो सब हैं, लेकिन मंगलमय हो कैसे, यह कोई नहीं बताता। वह भगवान बुद्ध के द्वारा बताया गया है, जिसे मंगल सुत्त अथवा मंगल सूत्र कहते हैं।
जब इस देश से बुद्ध धम्म लुप्त हुआ, तो वह मंगल सुत्त का पाठ तो बन्द हो गया लेकिन प्रतीक स्वरूप वधु के गले में एक आभूषण पहनाया जाने लगा जिसे मंगल सूत्र नाम दिया गया। इसे सुहाग का अर्थात सौभाग्य के प्रतीक के रूप में स्थापित किया गया।
हर मिथक के पीछे कोई लुप्त, विस्मृत इतिहास होता है। विपरीत दिशा में, रिवर्स डायरेक्शन में विवेचना करनी होती है।
वह विश्विद्यालीय संगोष्ठी में मैंने निष्कर्ष दिया कि मंगलसूत्र जनमानस पर बौद्घ धर्म के प्रभाव का एक ज्वलंत उदाहरण है।
ऐसे ही नाथ पंथ और बौद्घ परम्परा में कितना गहरा रिश्ता है इसका सबसे बड़ा सबूत खिचड़ी है। अभिलेखीय, पुस्तकीय, ऐतिहासिक सबूत और भी बहुत-से हैं लेकिन खिचड़ी लोकमानस, लोकव्यवहार, लोकप्रचलन में व्याप्त सबसे बड़ा सबूत है।
आप मेरी बात को बेहतर समझ सकेंगे जब आपको इसकी पृष्ठभूमि बताउंगा। प्रसंग विनय पिटक से है।
ऐतिहासिक साक्ष्य हैं कि बौद्घ परम्परा और नाथ परम्परा का मूल एक है। दोनों परम्पराओं को सहोदर कहना भी कुछ न्यून परिभाषा होगी वरन एकवंशीय कहना अधिक सटीक होगा। दोनों परम्पराओं में मूल, शाखा, प्रशाखा जैसा निकट सम्बन्ध है। इस निकट सम्बन्ध के ग्रन्थीय शोध के अनेकानेक सन्दर्भ मिलेंगे लेकिन सबसे बड़ा साक्ष्य खिचड़ी है, जो गोरखनाथ मन्दिर, गोरखपुर में प्रसाद के रूप में चढ़ती है, अर्पित होती है।
भगवान बुद्ध के वचनों के विशाल संग्रह त्रिपिटक के एक अङ्ग विनय पिटक के भैषज्य-स्कन्धक अध्याय में दो बड़े प्यारे प्रसंग हैं।
एक श्रद्धालु उपासक के घर जब नया तिल और शहद आया तो उसके मन में मुदित विचार हुआ कि क्यों न सबसे पहले इसे भगवान बुद्ध और भिक्खु संघ को अर्पित करूँ। वह त्वरित पगों से भागता हुआ भगवान बुद्ध के पास गया। सम्मुख पहुँच कर अभिवादन कर एक ओर खड़ा हो गया। कुशल-क्षेम की औपचारिकता पूर्ण कर उसने विनीत स्वर में भगवान से प्रार्थना की- संघ सहित कल के भोजनदान का पुण्यलाभ का अवसर दें...
भगवान ने मौन स्वीकृति दी।
प्रमुदित मन से घर लौट कर उसने भगवान और भिक्खु संघ के लिए भोजन की तैयारी की। अगली सुबह भोजन तैयार हो जाने पर उसने जा कर भगवान को सूचित किया- भगवान! भोजन तैयार है...
भगवान उपासक के आवास पर पहुँच कर खड़े हो जाते हैं। श्रद्धालु उपासक भगवान के पैर धोता है, सारे संघ के पैर धोता है, भगवान निर्धारित आसन पर बैठ जाते हैं, कतार में संघ बैठ जाता है।
बड़ा विहंगम दृश्य है, उपासक और उसके परिजन थालियाँ रखते हैं, क्रमिक रूप से खाद्य परोसते हैं, परोसना पूरा होने पर उपासक और उसके परिजन भगवान के सम्मुख रखी थाली को हाथ लगा कर अर्पित करते हैं, भगवान संघ सहित गाथाओं का संगायन करते हैं- फिर भोजन शुरू होता है...
उपासक और परिजन थालियों पर, पात्रों पर नज़र दौड़ाते रहते हैं, जिसमें कमी होती है, तुरंत परोसते हैं...
भोजन भिक्खु संघ कर रहा है लेकिन तृप्ति उपासक और उसके परिवार को मिल रही है...
भोजन के उपरान्त एक पात्र में भगवान के हाथ धुला कर उपासक उनके हाथ पोछता है, कितने सौभाग्यशाली लोग थे!
कर प्रक्षालन पूरा हो चुकने के बाद उपासक और उसका परिवार हाथ जोड़ कर भगवान के सम्मुख, संघ के सम्मुख बैठ जाता है।
भगवान धम्म देशना देते हैं, दान की महिमा का आख्यान करते हैं। उपासक और उसके परिवार की श्रद्धा को पुष्ट करते हैं। फिर भगवान के स्वर का अनुगमन करते हुए पूरा संघ श्रद्धालु परिवार की मंगलकामना करता है- भवतु सब्ब मंगलम् रक्खन्तु सब्ब देवता...
भगवान संघ सहित उठ कर विहार आ जाते हैं। भगवान के चले जाने के उपरान्त अचानक उस श्रद्धालु उपासक को ख्याल आता है- जो तिल, गुड़, शहद भगवान को अर्पित करने के लिए आमंत्रित किया था वह तो परोसना ही भूल गया!
उसके मन में बड़ा पश्चाताप होने लगा। फिर उसने विचार किया कि क्यों न मटकों में भर कर तिल, शहद विहार ले चलूँ, शायद भगवान और संघ स्वीकार कर लें।
उस काल में भिक्खु विनय से उपासक भी सुपरिचित थे, उन्हें पता था कि एक बार भोजन कर चुकने के बाद संघ दोबारा भोजन नहीं करता और 'विकाल भोजन' तो नहीं ही करता। 'विकाल भोजन' से तात्पर्य दोपहर बाद भोजन। भिक्खु संघ दिन में सिर्फ एक बार, वह भी बस दोपहर के पहले, भोजन करता है। वह भी अगर न मिले तो फिर दिन बिना भोजन के गुजारता है।
बड़े संकोच से वह श्रद्धालु उपासक अपनी सुधार की मंशा से तिल, शहद मटकों में भर कर विहार लेकर पहुँचता है। भगवान के सम्मुख पहुँच कर सकुचाते हुए एक तरफ खड़ा हो जाता है, फिर क्षमायाचना सहित निवेदन करता है:
"भगवान! जिसके लिए मैंने भगवान को संघ सहित आमंत्रित किया था, वह तिल-गुड़-मधु तो मैं परोसना ही भूल गया। कृपा करके इन नये तिलों और मधु को स्वीकार करें..."
उपासक की श्रद्धा देख कर और कुछ भिक्खुओं को भोजन से अतृप्त देख कर भगवान ने उपासक से कहा- उपासक! तिल और मधु संघ को परोसो।
ऐसा होता था कि संघ के भोजनदान के समय, कहीं भगवान से ज्यादा देर तक न खाता रह जाऊँ, उनको हमारे कारण इंतजार करना पड़े, इस संकोच में कुछ भिक्खु अतृप्त रहते हुए ही 'बस' कह देते थे या किसी अन्य संकोच में भी कम खाते थे अथवा अगर अकाल-दुर्भिक्ष होता था तब भी कुछ भिक्खु कम भोजन करते थे ताकि कोई अन्य भूखा भी भोजन पा जाए- इतना अनुशासित और संवेदनशील था भगवान का संघ!
श्रद्धालु उपासक को तिल और मधु परोसने का आदेश देते सुन कर संघ भगवान को देखने लगा। तब भगवान ने करुमामय स्वर में कहा- भिक्खुओं! अनुमति देता हूँ, भोजन के उपरान्त भी मिष्ठान्न स्वीकार करने की, अतृप्त रह गये संघ को दोबारा भोजन करने की...
इस प्रकार भगवान के संघ में भोजन के उपरान्त मिष्ठान्न स्वीकार करने का विनय बना।
आज भी इस देश में साधु समाज को तिल-गुड़-शहद दान देने का धार्मिक विधान है। इसकी उत्पत्ति का मूल भगवान के संघ का यह विनय है।
वह उपासक तिल-गुड़-शहद मटको में भर कर गाड़ियों में लाद कर विहार लाया था। गाड़ी-घोड़ा या बैलगाड़ी को पालि भाषा में सकट अथवा शकट कहते हैं। शताब्दियों के लम्बे अन्तराल के बाद परम्पराएं अभी भी जीवित हैं, लेकिन कथानक बदल गये हैं। माघ माह की चतुर्थी को सकट पूजा होती है जिसमें जिस दिन तिल-गुड़-शहद ही मुख्य सामग्री होती है। उस दिन विनायक पूजा का विधान है, माताएं अपने पुत्रों के कुशल-मंगल के लिए यह उपवास करती हैं। विनायक का अर्थ होता है- जो विनय का नायक है- विनय से परिपूर्ण है। भगवान बुद्ध ही विनायक हैं। संघ का एक पर्यायवाची गण भी है, उसका अध्यक्ष होने से भगवान बुद्ध का एक सम्बोधन गणपति भी है। विनायक, गणपति इत्यादि का अर्थ अब मिथकीय पात्र हो गया है लेकिन ऐतिहासिक रूप से ये सम्बोधन भगवान के लिए प्रयोग किये गये हैं- मज्झिम निकाय में उन्हें स्पष्ट रूप से विनायक और गणपति सम्बोधित किया गया है।
परम्पराओं की विवेचना करें तो कई धागे हाथ लगते हैं- तिल, तिलवा, तिल एकादशी, षट् तिला द्वादशी इत्यादि कई व्रत व त्योहार हैं जिनमें तिल-गुड़-शहद दान का ही विधान है। अब मिथकीय कथानक जो भी प्रचलन में हों, लेकिन इन परम्पराओं के ऐतिहासिक धागे सीधे भगवान बुद्ध और उनके काल से जुड़े हैं।
विनय पिटक के भैषज्य-स्कन्धक दूसरा प्रसंग भी बड़ा मर्मस्पर्शी है।
साढ़े बारह सौ के विशाल संघ के साथ भगवान वाराणसी में विहार कर रहे थे। वह संघ के साथ अन्धकविन्द की ओर चारिका कर रहे थे।
बुद्ध प्रमुख भिक्खु संघ को भोजनदान कर पुण्यलाभ अर्जित करने के धम्म लोभ में अनेक समर्थ लोग तेल, नमक, चावल व अन्य खाद्य पदार्थ गाड़ियों में लाद कर संघ के पीछे-पीछे चल रहे थे कि जब उन्हें अवसर मिलेगा तो वह भी पावन संघ को भोजनदान करेंगे।
एक श्रद्धालु उपासक भी इसी प्रत्याशा में पीछे-पीछे लगा था। भगवान अपने संघ के साथ अन्धकविन्द पहुँच गये, मगर उस उपासक की बारी नहीं आयी। घर से दूर हुए उसे दो महीने हो चुके थे।
कितना समृद्ध काल था इस देश का! धन-धान्य से समृद्धि कि साढ़े बारह सौ के विशाल संघ के साथ भगवान विहार कर रहे थे और एक श्रद्धालु को दो महीने में भी अवसर नहीं मिल पा रहा था कि वह बुद्ध प्रमुख संघ को भोजन करा सके। यह देश ऐसे ही सोने की चिड़िया नहीं कहा जाता था। आध्यात्मिक समृद्धि भौतिक समृद्धि भी देती है। वह बुद्ध का काल था, बौद्धकाल था, देश आध्यात्मिक रूप से भी समृद्ध था, भौतिक रूप से भी सम्पन्न था।
वह श्रद्धालु उपासक अपने घर का अकेला व्यक्ति था जिस पर पूरे परिवार का दायित्व था। उसे घर की चिन्ता भी सताने लगी, काम-धाम की याद आने लगी। उसने अपने मन में विचार किया- जिन लोगों को भोजन कराने का अवसर मिल पा रहा है, उन्हीं को परोसते देखूँ, जिस सामग्री का भोजन में अभाव हो वह व्यवस्था ही मैं कर दूँ, इससे मुझे बीच में ही भोजनदान का पुण्यलाभ मिल जाएगा।
यह सोच कर उसने अन्य श्रद्धालुओं का भोजन देखा और पाया कि भोजन में मिष्ठान्न नहीं है, यवागू अर्थात गीली खिचड़ी नहीं है।
बड़े उत्साहित मन से भागता हुआ वह भगवान के उपस्थापक आनन्द के पास गया। उनसे अपनी स्थिति स्पष्ट की:
"बुद्ध प्रमुख भिक्खु संघ को भोजनदान देने की प्रत्याशा में दो महीने से संघ के पीछे-पीछे चल रहा हूँ, लेकिन मेरी बारी अभी तक नहीं आयी है। मैं घर का अकेला हूँ। काम-धाम छोड़ कर पुण्यलाभ की प्रत्याशा में भगवान के पीछे-पीछे चल रहा हूँ। पता नहीं मेरी बारी कब आएगी। इसलिए मैंने सोचा कि जो लोग भोजन कराने का अवसर पा गये हैं, उन्हें परोसते देखूँ, भोजन में जिस खाद्य सामग्री का अभाव हो, वह व्यवस्था ही मैं कर दूँ, मैंने पाया कि भोजन में यवागू और मिष्ठान्न में मधुपिण्ड(लड्डू) कोई नहीं परोस रहा है। यदि गीली खिचड़ी और लड्डू तैयार कराऊं तो क्या भगवान स्वीकार करेंगे?"
आनन्द ने कहा- उपासक! भगवान से पूछ कर बताता हूँ...
यह कह कर आनन्द ने सारा विवरण जा कर भगवान को बताया। करुणामय भगवान ने उस श्रद्धालु उपासक की परिस्थिति को समझा कि वह अपना काम-धाम छोड़ कर दो महीने से भोजनदान की प्रत्याशा में पीछे-पीछे लगा है। भगवान ने आनन्द से कहा- आनन्द! उपासक से कहो कि वह तैयारी करे...
आनन्द ने आकर उपासक से कहा- उपासक! भगवान ने अनुमति दे दी है। तुम जाओ, खिचड़ी और लड्डू तैयार कराओ।
श्रद्धालु उपासक की श्रद्धा से आँखें छलक आयीं। आखिर दो महीने के बाद उसे भगवान को भोजनदान का अवसर मिल पाया था। उसकी आँखों से खुशी के आंसू छलक पड़े थे।
साढ़े बारह सौ के विशाल भिक्खु संघ के लिए उपासक ने प्रभूत मात्रा में यवागू और मधुपिण्ड तैयार कराए। संघ के भोजन समाप्ति से पूर्व उसने भगवान के सम्मुख एक थाल में खिचड़ी और लड्डू परोस कर स्वीकार करने की प्रार्थना की।
उस समय ऐसा विनय था कि भोजन शुरू होने से पूर्व और समाप्त होने के बाद कुछ भी खाद्य स्वीकार करना निषिद्ध था।
उपासक द्वारा खिचड़ी और लड्डू परोसने पर संघ भगवान को देखने लगा।
खिचड़ी को पालि भाषा में यवागू और लड्डू को मधुपिण्ड कहते हैं। यवागू वास्तव में गीली खिचड़ी होती है जिसे चिकित्सक प्रायः रोगियों को संस्तुत करते हैं। वास्तविक अर्थों में खिचड़ी खाद्य नहीं बल्कि पेय भोज्य है।
उपासक द्वारा भगवान के सम्मुख यवागू और मधुपिण्ड परोसा गया। भगवान ने यह दान स्वीकार किया और भिक्खुओं को भी अनुमति दी- भिक्खुओं! गृहण करो...
तब से संघ में भोजन की समाप्ति के बाद भी पेय और मिष्ठान्न स्वीकार करने का विनय बना।
भोजन की समाप्ति पर भगवान द्वारा थाली से हाथ खींच लेने तथा हाथ धोने के उपरान्त वह उपासक भगवान की धम्म देशना और अनुमोदन-आशीष की प्रत्याशा में एक ओर हाथ जोड़ कर बैठ गया।
उस दिन भगवान ने खिचड़ी की महिमा पर ही अपना प्रवचन दिया। भगवान ने कहा:
"उपासक! खिचड़ी के दस महात्म्य हैं। दस गुण हैं-
1. खिचड़ी देने वाला आयु का दाता होता है।
2. खिचड़ी देने वाला वर्ण, रूप का दाता होता है।
3. खिचड़ी देने वाला सुख का दाता होता है।
4. खिचड़ी देने वाला बल का दाता होता है।
5. खिचड़ी देने वाला प्रतिभा का दाता होता है।
6. उसकी दी खिचड़ी से क्षुधा शान्त होती है।
7. उसकी दी खिचड़ी प्यास का शमन करती है।
8. उसकी दी खिचड़ी वायु को अनुकूल करती है।
9. खिचड़ी पेट को साफ करती है।
10. खिचड़ी न पचे को पचाती है।
"खिचड़ी के ये दस गुण हैं। जो संयमी, श्रद्धालु दूसरे के दिये भोजन करने वालों को समय पर सत्कारपूर्वक यवागू का दान करता है उसे ये दस फल मिलते हैं-
1. आयु
2. रूप-वर्ण
3. सुख
4. बल
5. प्रतिभा उत्पन्न होती है।
6. क्षुधा शान्त होती है।
7. प्यास शान्त होती है।
8. वायु विकार नहीं होता, वायु अनुकूल रहती है।
9. पेट का शोधन होता है।
10. पाचन ठीक रहता है।"
भगवान ने यह भी कहा कि यह औषधि तुल्य है। दिव्य सुख की चाह रखने वाले और सौभाग्य की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को खिचड़ी का दाता होना चाहिए।
इस प्रकार भगवान बुद्ध द्वारा खिचड़ी का माहात्म्य बताए जाने के कारण कालान्तर में खिचड़ी भारत का एक 'धार्मिक भोजन' भी हो गयी और साधु समाज का सबसे प्रिय भोजन हो गयी। न केवल इतना, बल्कि श्रद्धालुओं के लिए भोजनदान की यह सबसे प्रिय सामग्री हो गयी क्योंकि यह जल्दी से और सरलता से तैयार हो सकती है।
ढाई हजार साल के एक लम्बे अन्तराल में खिचड़ी के दान ने एक महान धार्मिक स्वरूप गृहण कर लिया है और धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में 'खिचड़ी' एक पर्व बन गया। भारत के दक्षिणी प्रान्तों में यथा तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, आन्ध्र प्रदेश में इसे 'पोंगल' कहते हैं, पंजाब-हरियाणा में इसे लोहड़ी कहते हैं, उत्तर भारत के प्रान्तों में इसे 'खिचड़ी' कहते हैं। तमिल भाषा में नमकीन खिचड़ी का नाम 'मेलागू' है, निश्चित ही यह पालि भाषा के 'यवागू' का तमिल संस्करण है। 14 अथवा 15 जनवरी, प्रत्येक वर्ष मकर संक्रान्ति की तिथि 'खिचड़ी' के रूप में सर्वमान्य तिथि हो गयी है।
बारहवीं शताब्दी तक भारत में बुद्ध धम्म का स्वर्णिम काल रहा है। तदोपरान्त यह परम्परा कुछ बाहरी और कुछ भीतरी कारणों से अपने देश में क्षीण होने लगी।
जो इतिहासकार, अध्येता, शोधार्थी कहते हैं कि भारत से बुद्ध धम्म नष्ट हो गया वे गलत कहते हैं। बुद्ध धम्म सूरज की तरह है। वह एक जगह अस्त होता है तो दूसरी जगह उदय भी हो रहा होता है। आप देंखे, जिस काल में बुद्ध धम्म भारत से लुप्त होता हुआ दिख रहा है ठीक उसी अवधि में वह श्रीलंका, थाईलैण्ड, तिब्बत, चीन आदि देशों में पूरी प्रभा के साथ चमक, दमक रहा है। बुद्ध धम्म स्थानीय नहीं है, सार्वभौमिक है।
जैसे किसी बड़े साम्राज्य के बिखरने के बाद छोटे-छोटे छत्रपों व राज्यों का उदय होता है ऐसे बुद्ध शासन के भारत से क्षीण होने के काल में अनेक धार्मिक सम्प्रदायों का उदय हुआ- महासांघिक, महायान, वज्रयान, मंत्रयान, सहजयान आदि।
बौद्धों के अठारह निकायों में एक निकाय है जिसे सहजयान कहते हैं। इस सहजयान से अनेक सम्प्रदायों का जन्म हुआ जैसे सिद्ध सम्प्रदाय, भक्ति सम्प्रदाय, नाथ सम्प्रदाय, सहज सम्प्रदाय आदि। इसमें से नाथ सम्प्रदाय ने भारत को अनेक विख्यात संत और सिद्ध दिये।
बौद्घ ग्रन्थों में भगवान बुद्ध को लोकनाथ कहा गया है, जगन्नाथ कहा गया है। नाथ सम्प्रदाय के आदिनाथ स्वयं भगवान बुद्ध हैं। वैसे नाथ सम्प्रदाय का आदि संस्थापक योगी मत्स्येन्द्रनाथ को माना जाता है। योगी मत्स्येन्द्रनाथ की चौरासी सिद्धों में गणना होती है। बौद्धों के चौरासी सिद्धों में योगी मत्स्येन्द्रनाथ और उनके शिष्य योगी गोरक्षनाथ का क्रम आठ और नौ पर बड़े आदरपूर्वक स्मरण होता है। तिब्बती परम्परा ने बौद्धों के चौरासी सिद्धों का इतिहास क्रमिक रूप से संरक्षित किया हुआ है। तिब्बती परम्परा योगी मत्स्येन्द्रनाथ को मीनपा और योगी गोरक्षनाथ को गोरक्षपा सम्बोधित करती है।
भारत के संविधान शिल्पी डा. बी आर अम्बेडकर जिस एक कारण से बुद्ध धम्म से सर्वाधिक प्रभावित हुए वह था कि इस धर्म में ऊँच-नीच की शास्त्रीय अवधारणा नहीं है। यद्यपि भगवान बुद्ध के द्वारा अन्य किस्म की ऊँच-नीच की अवधारणा दी है।
डार्विन का सिद्धान्त है कि मनुष्य का विकास बन्दर से हुआ है। लेकिन भगवान बुद्ध विकासक्रम स्रोतापन्न, सक्रतागामी, अनागामी, अरहत बताते हैं। मनुष्य विकसित होता है तो स्रोतापन्न होता है, स्रोतापन्न से उच्चतर अवस्था सकृदागामी है, और उच्चतर अनागामी तथा उच्चतम अवस्था अरहत है। भगवान बुद्ध का विकासवाद, ऊँच-नीच क्रम इस प्रकार है जो किसी को छूत-अछूत नहीं बनाता वरन श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर मानव बनने की प्रेरणा देता है।
नाथ पंथ और बौद्घ परम्परा में साम्यता का सबसे बड़ा सबूत यह है कि तिब्बती बौद्घ परम्परा द्वारा संरक्षित किये गये चौरासी सिद्धों के विवरण में 35 सिद्ध समाज के सबसे निचले पायदान के हैं जिन्हें पुरोहितवाद शूद्र कहता हैं। चौरासी सिद्धों में पैतीस सिद्ध शूद्र हैं यानी लगभग बयालीस प्रतिशत।
वह जो भगवान बुद्ध के वचन हैं- न जच्चा होति वसलो न जच्चा होति ब्राम्हणो- जन्म से कोई ब्राम्हण या अछूत नहीं होता- कम्मा होति वसलो कम्म होति ब्राम्हणो - कर्म से कोई ब्राम्हण या अछूत होता है।
जो स्वयं को ब्राम्हण मानते हैं उनको भगवान बुद्ध के वचनों के संग्रह धम्मपद का ब्राम्हण वग्गो जरूर पढ़ना चाहिये।
योगी मत्स्येन्द्रनाथ और योगी गोरक्षनाथ के आध्यात्मिक नेतृत्व में भारत में नाथ सम्प्रदाय का जन्म हुआ। यद्यपि यह सम्प्रदाय आज दार्शनिक अर्थों में अपने मौलिक स्रोत बुद्ध धम्म से भिन्न दिखने लगा है तथापि इसमें व्याप्त परम्पराएं उनके एकत्व के स्रोत के बड़े सघन संकेत भी दर्शाती हैं। उन संकेतों में सबलतम संकेत है- 'खिचड़ी'।
नाथ सम्प्रदाय में 'खिचड़ी' सबसे प्रमुख 'प्रसाद' अथवा 'चढ़ावा' है। उत्तर प्रदेश में भगवान बुद्ध की निर्वाणस्थली कुशीनगर के निकट जनपद गोरखपुर का नाम नाथयोगी गोरखनाथ के नाम पर है जहाँ प्रसिद्ध मन्दिर गोरखनाथ धाम है। गोरखनाथ धाम में प्रसाद में 'खिचड़ी' चढ़ती है।
भगवान बुद्ध ने खिचड़ी की जो महिमा बतायी है उसका प्रत्यक्ष रूप जनपद गोरखपुर के गोरखनाथ मन्दिर में भी देखा जा सकता है। समय के लम्बे अन्तराल के बाद कथा-कथानक-मान्यताएं बदल जाती हैं, लेकिन कुछ सूत्र वर्तमान और अतीत को जोड़ देते हैं, 'खिचड़ी' एक सूत्र है जो वर्तमान को सीधे अतीत में भगवान बुद्ध से जोड़ती है।
परम्पराएं किस रुप में दूषित व विकृत हुई हैं या की गयी हैं, तीन शब्दों की ओर ध्यानाकर्षित करना चाहूँगा- एक शब्द है तांत्रिक, दूसरा शब्द है अघोरी, तीसरा शब्द है अवधूत।
तंत्र से बना है तांत्रिक। तंत्र क्या है? जैसे लोकतंत्र। तंत्रिका तंत्र। तंत्र अर्थात व्यवस्था, विधि, सिस्टम। जो व्यवस्था का, तंत्र का ज्ञाता है वह तांत्रिक है। जो अपनी आंतरिक व्यवस्था को योगसाधना से जान लेता है उसे तांत्रिक कहते हैं। सबसे बड़ा तंत्र है- स्व-तंत्र। जो अपने तंत्र का ज्ञाता है वह स्वतंत्र हो जाता है।
घोर मायने क्या होता है? घने, विकराल, विकट, भयानक यथा घनघोर, घनचक्र। जो घोर नहीं है, सहज है, सरल है वह अघोर या अघोरी है।
सच यह है कि सरल, सहज लोगों के संघ में जटिल लोग प्रवेश करके उसे बदनाम करते हैं, फिर अर्थ का अनर्थ हो जाता है। वही अनर्थ प्रचलन में आ जाता है।
धूर्तता के विपरीत सरल, सहज व्यक्ति अधूर्त है वह अवधूत कहलाता है। जो सहजावस्था को उपलब्ध है वह अवधूत है।
ये सारी शब्दावलियाँ नाथपंथ में बौद्घ परम्परा से आयी हैं।
नाथ का अर्थ होता है स्वामी, शासक। उच्चतम अर्थों में जो अपनी इन्द्रियों का स्वामी है वह नाथ है।
गांवों में बिगड़ैल बैल या घोड़े को नियंत्रित करने के लिए उसके नथनों में रस्सी डाल कर वश में करते हैं। उसे बैलों को नाथना कहते हैं। ऐसे जो अपनी अनियंत्रित इन्द्रियों को, विकारों को प्रज्ञा की रस्सी से नाथ लेता है उसे नाथ कहते हैं। भगवान बुद्ध को आदिनाथ कहा गया है।
विगत दिनों भारत की राजधानी नयी दिल्ली में विश्व खाद्य सम्मेलन आयोजित हुआ- 4 नवम्बर'2017 को, जिसमें 60 देशों के मशहूर खानसामाओं, शेफ, ने हिस्सा लेकर अपने-अपने देश के प्रसिद्ध खाद्य पदार्थों का प्रदर्शन किया। इस अवसर पर भारत ने 'खिचड़ी' को अपनी 'ब्रैण्ड डिश' घोषित किया तथा इसे वैश्विक प्रचार देने के लिए, गिनीज़ बुक में दर्ज़ कराने के लिए, 918 किलोग्राम खिचड़ी एक विशाल कढ़ाई में पका कर साठ हजार अनाथ बच्चों तथा उपस्थित मेहमानों को परोसी गयी। इतना ही नहीं, 'खिचड़ी' को विश्व स्तर पर 'ब्राँण्ड इंडिया खिचड़ी' के रूप में लोकप्रिय करने के लिए भारत सरकार ने भारत के समस्त विदेशी दूतावासों को पाक विधि के साथ खिचड़ी भेजी।
भगवान बुद्ध का धम्म वैश्विक हो रहा है और उनके द्वारा प्रशंसित 'खिचड़ी' भी अब वैश्विक हो रही है।
बौद्घ परम्परा तो अपने मौलिक रूप में ही समता, स्वतंत्रता, बन्धुता, न्याय, मैत्री, करुणा लिए हुए है लेकिन इस परम्परा से व्युत्पन्न धाराओं सहजयान, नाथपंथ, कबीरपंथ, भक्ति सम्प्रदायों में भी विषमता, विभेद का घनघोर, क्रान्तिकारी निषेध है, समता का, मैत्री का गुणगान है। इन पंथों के शबद, दोहे, वाणियों में प्रेम, मैत्री, समता का संकीर्तन है।
प्रश्न है नाथ पंथ और बौद्घ परम्परा की प्रासंगिकता? जब तक धरती पर प्रकाश की चाहत है, अन्धेरे से वितृष्णा है तब तक सूरज और चांद प्रासंगिक हैं। ऐसे ही जब तक मनुष्य में विकार हैं, अन्धेरा है, प्रकाश की अभीप्सा है तब तक नाथपंथ और बौद्घ परम्परा प्रासंगिक हैं और रहेंगे। जरूरत है सही को सही अर्थों में समझने की।
—----
सन्दर्भ:
विनय पिटक भैषज्य स्कन्ध
चौरासी सिद्धों का वृत्तान्त (आचार्य अभयदत्तश्री प्रणीत)
महामङ्गल सुत्त
5 नवम्बर, 2017 का समाचार पत्र
(राजकीय बौद्ध संग्रहालय गोरखपुर एवं महायोगी गुरु श्रीगोरक्षनाथ शोधपीठ के संयुक्त तत्त्वावधान में दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी "वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नाथपंथ एवं बौद्ध परम्परा की प्रासंगिकता" का दिनांक 2 मार्च'2025 शोधपीठ परिसर में समापन हुआ। समापन सत्र की मुख्य अतिथि प्रोफेसर शोभा गौड जी, माननीय कुलपति माँ विंध्यवासिनी विश्वविद्यालय, मिर्जापुर रहीं।
दो दिवसीय संगोष्ठी में दस राज्यों क्रमशः उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, उडीसा, बिहार, असम, पश्चिम बंगाल, नई दिल्ली के लगभग 07 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों एवं 15 राज्य विश्वविद्यालयों के प्रतिनिधियों के रूप में लगभग 120 आचार्यों, उपाचार्यों, सहायक आचार्यों एवं शोध छात्रों ने शोध मंथन में प्रतिभाग किया। प्रतिभागी विश्वविद्यालयों में क्रमशः काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली, इन्दिरा गाँधी मुक्त विश्वविद्यालय नई दिल्ली, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय अमरकंटक मध्य प्रदेश, सागर विश्वविद्यालय मध्य विश्वविद्यालय, हेमवती नन्दन बहुगुणा विश्वविद्यालय उत्तराखंड, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, गोरखपुर विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ वाराणसी, लखनऊ विश्वविद्यालय, उज्जैन विश्वविद्यालय, सिद्धार्थ विश्वविद्यालय कपिलवस्तु, सरदार पटेल विश्वविद्यालय आनंद गुजरात, जय प्रकाश विश्वविद्यालय छपरा, महाराजा सूरजमल विश्वविद्यालय भरतपुर राजस्थान, रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय बरेली, महायोगी गुरु श्रीगोरक्षनाथ विश्वविद्यालय गोरखपुर आदि उल्लेखनीय हैं।
इस संगोष्ठी में उक्त व्याख्यान ऑनलाइन माध्यम से प्रस्तुत किया)
No comments:
Post a Comment