।।हीनयान-महायान।।
-राजेश चन्द्रा-
दरअसल हीनयान जैसा कोई यान नहीं है। मूलत: यह थेरवाद है, जिसे निम्नतर सिद्ध करने के लिए हीनयान कह कर सम्बोधित किया गया है।
धार्मिक इतिहास बताता है कि दुनिया की हर धार्मिक विचारधारा में अपने संस्थापक के उपरान्त मोटे तौर पर कम से कम दो अथवा दो से अधिक विभाजन हो जाया करते हैं। जैनों में दो विभाजन हुए- श्वेताम्बर-दिगम्बर। इसाइयत में मोटे तौर पर दो वर्ग बने- कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट। इस्लाम में दो विभाजन हुए- शिया-सुन्नी। सिक्ख पंथ में अकाली-निरंकारी वर्ग बने। हिन्दुओं में शैव, शाक्त, वैष्णव वर्ग बने। बौद्धों में सर्वाधिक विभाजन हुए- अठारह निकाय बने।
1. महासांघिक अथवा महायान
2. एकव्यावहारिक
3. गोकुलिक
4. प्रज्ञप्तिवादी
5. बाहुलिक अथवा बाहुश्रुतिक
6.चैत्यवादी
7. थेरवादी
8. वज्जिपुत्तक
9. महीशासक
10. धर्मोत्तरीय
11. भद्रयाणिक
12. छन्रागरिक
13. सम्मितीय
14. धर्मगुप्तिक
15. सर्वास्तिवादी
16. काश्यपीय
17. सांक्रान्तिक
18. सौत्रान्तिक
देखा यह गया है कि हर विभाजित वर्ग यह साबित करने का प्रयास करता है कि अपने संस्थापक की शिक्षाओं का वह ही कठोरता से पालन कर रहा है, दूसरा विचलित हो रहा है, शिथिल हो रहा है अथवा हो गया है।
इतिहास यह भी साक्ष्य देता है कि ये धार्मिक विभाजन उग्र भी हुए हैं, हिंसक भी हुए हैं, खून-खराबा तक हुआ है और एक वर्ग ने दूसरे को 'हीन' साबित करने का प्रबलतम प्रयास तक किया है। यह कथित 'हीनयान' उसी प्रवृत्ति का परिचायक है।
मगर सबसे रोचक तथ्य यह है कि बौद्धों के अठारह निकायों में सैद्धान्तिक वाद-विवाद, तर्क-वितर्क, शास्त्रार्थ चाहे जितने हुए हों, मगर अन्य सम्प्रदायों की तरह बौद्धों के निकायों के बीच हिंसक संघर्ष कभी नहीं हुए। इतिहास में एक भी साक्ष्य ऐसा नहीं मिलता है। तीसरी संगीति के समय यह मतभेद चरम पर उभर कर आया जब थेरवादियों ने महासांघिकों को सम्राट अशोक के राज्यादेश द्वारा छटनी करके संघ से निस्कासित किया। इसी घटना से कथित महासांघिक अथवा महायान का उदय हुआ, जिसने मूल थेरवादी संघ को हीनयान कहा और स्वयं को महायान। धम्म के नाम पर उत्पन्न हो गये मिथ्या मतों के खण्डन के लिए ही तीसरी संगीति में कथावत्थु नामक ग्रन्थ त्रिपिटक में अस्तित्व में आया। सर्वाधिक उल्लेखनीय तथ्य है कि यह कथित हीनयान और महायान के विभाजन तथा कालान्तर में वज्रयान, मन्त्रयान, तन्त्रयान, सहजयान, योगाचार, माध्यमिक, सौत्रान्तिक इत्यादि अठारह निकायों की शाखाओं, उपशाखाओं के सैद्धान्तिक मतभेदों में भी एक मतैक्यता रेखांकित करने लायक है कि बौद्धों के सभी निकायों में बुद्ध, धम्म, संघ इन तीन रत्नों की मान्यता पर कोई मतभेद नहीं है। सभी अठारह निकाय तीन रत्नों को- बुद्ध, धम्म, संघ- को अपना केन्द्रीय तत्व मानते हैं। तीन शरण, पांच शील, चार आर्य सत्य, आर्य अष्टांग मार्ग, द्वादशनिदान यानी प्रतीत्यसमुत्पाद इन पर कोई मतभेद नहीं है। ज्यादातर मतभेद है पूजा पद्यति अथवा ध्यान के आलम्बन को लेकर है, मूर्ति पूजा, बोधिसत्व अवधारणा को लेकर, पालि व संस्कृत को लेकर, बुद्ध की पार्थिवता अथवा अपार्थिवता को लेकर है।
कथित हीनयान तथा महायान के मतभेद का प्रधान कारण रहा- मूर्ति पूजा। मतभेद के और भी कई कारण हैं, लेकिन मूर्ति पूजा उनमें सर्वोपरि है। भगवान के महापरिनिब्बान के लगभग पांच सौ वर्षों के उपरान्त महायानियों ने बुद्ध की मूर्ति पूजा इजाद की। महायानियों का मत था कि अब समय आ गया है कि सिर्फ अमूर्त सिद्धान्तों से लोगों को धम्म के प्रति निष्ठावान बनाए नहीं रखा जा सकता। प्रतीक रूप में कुछ मूर्त स्वरूप भी देना होगा। इसी अवधारणा से बुद्ध की मूर्तियों का सृजन हुआ। बुद्ध की मूर्तियाँ निर्मित करने का बाकायदा मूर्तिशास्त्र बनाया गया। इसी मूर्तिकला को कालान्तर में गान्धार व यूनान की कला का स्पर्श मिला जिससे मूर्तिकला की मथुरा शैली को नया आयाम मिला है। गान्धार और मथुरा शैली ने मिल कर मूर्तिकला के एक युग को जन्म दिया। धर्म के क्षेत्र में मूर्ति पूजा का सबसे पहले अविष्कार ही बौद्धों ने किया, जिसे कालान्तर में अन्य सम्प्रदायों ने भी आत्मसात किया। थेरवादियों ने इसे भगवान बुद्ध की मूल शिक्षाओं से प्रबल विचलन करार दिया, परिणामस्वरूप दोनों वर्ग अलग हो गये। अलग हुए वर्ग ने मूल थेरवादियों को 'हीनयानी' सम्बोधित करना शुरू किया।
धार्मिक इतिहास का पर्यवेक्षण, ऑब्जर्वेशन यह भी बताता है कि एक लम्बे अन्तराल के बाद किसी ऊँची प्रज्ञा के व्यक्तित्व द्वारा इन विभाजित मतों के बीच समन्वय स्थापित करने के भी प्रबल प्रयास होते रहे हैं। यह समन्वय के प्रयास जैनों में, इसाइयों, इस्लाम, सिक्खों में और बौद्धों में भी हुए हैं। हिन्दुओं में शैव, शाक्त, वैष्णव सम्प्रदायों को समन्वित करने का सबसे सफल प्रयास तुलसीदास की रामचरित मानस के द्वारा हुआ, अन्यथा सोलहवीं सदी के पहले तक शैवों व शाक्तों में हिंसक, खूनी संघर्ष हुआ करते थे। अयोध्या की हनुमानगढ़ी कभी शैवों के कब्जे में हो जाया करती थी, तो कभी शाक्तों के कब्जे में। तुलसीदास ने रामचरितमानस में राम से शिव की पूजा करा दी, शक्ति की उपासना करा दी- शैव, शाक्य, वैष्णव मत समन्वित हो गये।
दर्शन शास्त्र में किसी मत को प्रबन्ध अथवा थेसिस बोलते हैं। एक लम्बे अन्तराल के बाद किसी भी स्थापित दर्शन अथवा मत में कुछ दोष व रूढ़ियाँ आ जाती हैं। उसके परिष्कार के लिए एक प्रतिक्रियात्मक मत अथवा दर्शन यानी विलोम प्रबन्ध का उदय होता है, जिसे एन्टीथेसिस बोलते हैं। फिर एक लम्बे अन्तराल के बाद इस नवस्थापित प्रतिक्रियात्मक दर्शन मत परम्परा में भी कुछ दोष व रूढ़ियाँ आ जाती हैं। फिर उसके परिष्कार के लिए कोई प्रज्ञावान व्यक्ति थेेसिस व एन्टीथेसिस को समन्वित करके सिन्थेसिस करता है, जिसमें दोनों मतों अथवा दर्शनों का श्रेष्ठ पक्ष सम्मिलित होता है। यह एक नैसर्गिक प्रक्रिया है कि समन्वित दर्शन अथवा मत पुन: एक थेसिस की तरह स्थापित हो जाता है। फिर एक लम्बे अन्तराल के बाद उस में भी रूढ़ताएं व दोष आ जाते हैं। फिर कोई प्रज्ञावान व्यक्ति उस थेसिस की एन्टीथेसिस को जन्म देता है। यह प्रकिया अनवरत चलती रहती है। जिस दर्शन, मत, विचारधारा, व्यक्ति या समाज में यह प्रक्रिया सतत चलती रहती है, वह हमेशा समीचीन, सामयिक व प्रासंगिक बना रहता है। जिसमें यह प्रकिया थम जाती है, वह दर्शन, मत, विचारधारा, व्यक्ति या समाज कालवाहि यानी आउटडेटे हो जाता है, मृत हो जाता है।
महापरिनिब्बान के पूर्व भगवान ने आनन्द से कहा- मेरे बाद, छोटे-मोटे विनय में आवश्यकतानुसार परिवर्तन कर लेना...
यही बात संगीति में जब आनन्द ने सूचित किया कि भगवान ने छोटे-मोटे विनय में समयानुसार परिवर्तन कर लेने को कहा है, तो महाकाश्यप ने पूछा- वो छोटे-मोटे विनय कौन-से हैं? आनन्द ने कहा- यह तो भगवान से मैंने पूछा नहीं। इस बात के लिए महाकाश्यप ने आनन्द को डांट लगायी कि इतनी महत्त्वपूर्ण बात आनन्द ने भगवान से पूछा क्यों नहीं!
इस प्रसंग को लेकर अनेकानेक टीकाएं लिखी गयी हैं। यह ध्यान देने की बड़ी बारीक बात है कि भगवान ने अपने धम्म में कोई विषय भी अव्याख्यायित नहीं छोड़ा है। फिर यह बात अधूरी क्यों छोड़ दी? आनन्द को भगवान से कोई भी प्रश्न पूछने की स्वतन्त्रता थी, फिर भी उन्होंने इस बात का विस्तार क्यों नहीं पूछा? भगवान ने प्रमादवश पूरी बात नहीं बतायी, ऐसा हो नहीं सकता। आनन्द ने प्रमादवश पूछा नहीं, ऐसा भी हो नहीं सकता। "छोटे-मोटे विनय में आवश्यकतानुसार परिवर्तन कर लेना...", दरअसल इतना भर कह कर भगवान ने आने वाले समय और संघ को स्वतन्त्रता दी है कि वह आवश्यकतानुसार निर्णय ले सके। यदि परिवर्तन किये जा सकने वाले विनय भी बता दिये गये होते, तो वह भी रूढ़ हो जाता।
भगवान के इस निर्देश के क्रियान्वयन की सबसे अच्छी मिसाल हमें चीन में देखने को मिलती है। जब बुद्ध धम्म ने चीन में प्रवेश किया तो वहाँ के समाज में मुण्डित शीश को लेकर मान्यता थी कि व्यक्ति माता-पिता के प्रति कृतघ्न है, माता-पिता की सेवा नहीं करता है। जो माता-पिता की सेवा नहीं करते थे, माता-पिता के प्रति कृतज्ञ नहीं रहते थे, समाज और शासक के द्वारा उनका सिर मुड़वा दिया जाता था। यानी मुण्डित शीश सामाजिक अपमान का प्रतीक था। और भगवान के विनय के अनुसार भिक्खु को मुण्डित शीश होना अनिवार्य था। तब चीन की सामाजिक आवश्यक्तानुसार वहाँ विनय में थोड़ा परिवर्तन किया गया। भिक्खु दीक्षा के समय बाल तो काटे ही जाते थे, लेकिन साथ में छतरीनुमा टोप पहनाया जाने लगा। चीनी भिक्खु अपने मुण्डित शीश पर टोप भी पहनते हैं। यह वहाँ का विनय बना। यह भगवान के द्वारा दिये गये आदेश के कारण हो सका- छोटे-मोटे विनय में आवश्यकतानुसार परिवर्तन कर लेना...।
बुद्ध धम्म दुनिया की एकमात्र धार्मिक विचारधारा है जो हमेशा अद्यतन रहती है। इसी नाते आज यह सारी दुनिया में विज्ञान की तरह अद्यतन व स्वीकृत है। यह महज संयोग भर नहीं है कि दुनिया को अद्यतन वैज्ञानिक तकनीकी बौद्ध देश दे रहे हैं- जापान, कोरिया, चीन...
तात्पर्य कहने का यह है कि थेसिस, एन्टीथेसिस, सिन्थेसिस की प्रक्रिया बुद्ध धम्म में अनवरत चलती रही है, इसी नाते अपनी प्राचीनता के साथ भी यह हमेशा आधुनिक बना रहता है।
बौद्धों में भी समन्वय के प्रयास हुए। आज थेरवादियों का कदाचित एक विहार ऐसा नहीं है जिसमें भगवान बुद्ध की मूर्ति न हो, उन्होंने महायानियों के मूर्ति पूजा की अवधारणा को आत्मसात कर लिया। और महायानियों ने भी थेरवाद से अपने मतभेदों को समाप्त कर देने के हर सम्भव प्रयास किये, कर रहे हैं। विगत लगभग आधी शताब्दी से देखने में यह आ रहा है कि महायान, वज्रयान, तन्त्रयान निकाय थेरवाद को संवर्धित, प्रमोट कर रहे हैं। विगत दो दशकों से इन प्रयासों ने और भी साकार रूप लेना शुरू किया है।
वर्ष 2019 में श्रावस्ती में महायान की काग्यु परम्परा का एक बुद्ध विहार बन कर तैयार हुआ- बौद्ध सांस्कृतिक महासभा, बौद्ध मन्दिर श्रावस्ती। लद्दाखवासी गुरू परम पावन द्रिकुंग सक्यबगॉन चेतसंग रिंपोचे इस परम्परा के वर्तमान आध्यात्मिक गुरु हैं, नायक हैं। परम पावन दलाई लामा तथा पंचेन लामा के बाद महायानी परम्परा में वे सर्वाधिक पूजनीय व आदरणीय लामा हैं। श्रावस्ती में महायानी परम्परा के नवनिर्मित हुए विहार का उद्घाटन उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय थेरवादी महासंघ से कराया। उद्घाटन भी मात्र औपचारिकता भर नहीं था, बल्कि भारत सहित थेरवादी देशों से उन्होंने भिक्खुओं को आमन्त्रित करके अपने नवनिर्मित विहार में चार माह का वर्षावास कराया। चार माह प्रवास का सारा व्यय स्वयं वहन किया। वह महायानी विहार में चार महीने सिर्फ थेरवादी ग्रन्थों का पाठ व प्रवचन होता रहा।
यह तो थेरवाद-महायान समन्वय का एक साकार उदाहरण है। दूसरा साकार तथ्य यह है कि विगत अठारह वर्षों से बोधगया में प्रत्येक वर्ष आयोजित होने वाले अन्तरराष्ट्रीय त्रिपिटक संगायन के आयोजक मण्डल में महायानी उपासक, उपासिकाएं व भिक्खु नायक की भूमिका में हैं। महायानियों के ख्येंत्से फाउण्डेशन के वरिष्ठतम व्यक्ति गुरू तर्थंग तुल्कू हैं तथा उनकी बेटी वांगमो डिक्सी थेरवादी त्रिपिटक संगायन की आयोजिका हैं। बोधगया में त्रिपिटक संगायन में महायानी लामा भी पूरी श्रद्धा से दस दिन संगायन करते हैं और संगायन के अन्त में गृद्धकूट पर्वत पर आयोजित एक दिवसीय महायानी त्रिपिटक संगायन में थेरवादी भिक्खु भी पूरी मैत्री के साथ सम्मिलित होते हैं, धम्मयात्रा में सभी यानों के भिक्खुगण सहर्ष सम्मिलित होते हैं।
सच कहें, तो आज की तारीख में थेरवाद ने अपनी मौलिक शुद्धता को बरकरार रखते हुए महायान से भी कुछ तत्वों को आत्मसात कर लिया है। आज कदाचित थेरवाद का एक विहार ऐसा नहीं है, जिसमें भगवान बुद्ध की मूर्ति न हो। थेरवादी देश- श्रीलंका, म्यानमार, थाईलैंड, लाओस, कम्बोडिया में भी बुद्ध की विशाल प्रतिमाएं हैं। यह समन्वय सराहनीय है। इसी प्रकार महायान ने भी थेरवाद के कतिपय तत्वों को स्वीकार कर लिया है। मैं ऐसे लामाओं को भी जानता हूँ जिन्होंने महायानी चीवर त्याग कर थेरवादी चीवर में पुन: दीक्षा ली है और इसका विपरीत भी है। इसी प्रकार थेरवादी भिक्खुनी संघ भी बहुत सशक्त होकर पुनरुत्थान कर रहा है और कई महायानी भिक्खुनियों ने पुन: थेरवादी दीक्षा व चीवर लिया है।
सुप्रसिद्ध लेखक मुद्राराक्षस जी एक निजी वार्ता में मुझसे कहने लगे- राजेश, यह धर्मों के रंगबिरंगेपन से टक्कर लेने की क्षमता तो सिर्फ महायानियों में ही है।
कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह कि कथित थेरवाद व महायान का विवाद और भेदभाव अब बेमानी हो चुका है। दुनिया जानती है कि नोबेल पुरस्कार से सम्मानित परम पावन दलाई लामा महायानी हैं, वैश्विक स्तर पर वे बौद्धों के गौरव हैं, लेकिन थेरवादी कार्यक्रमों में उन्हें बड़े आदर से मुख्य अतिथि के रूप में आमन्त्रित किया जाता है और वे स्वयं भी थेरवादी भिक्खुओं को दोनो हाथ जोड़ कर नमन करते हैं। न केवल इतना, बल्कि बहुत बार वे भी थेरवादी कार्यक्रमों को स्वयं आयोजित करते हैं और बोधगया में आयोजित महायानी आयोजन "कालचक्र पूजा" में वे थेरवादी भिक्खुओं को भी आमन्त्रित करते हैं।
नागपुर में धम्म दीक्षा के उपरान्त एक पत्रकार ने बाबा साहेब डा. बी आर अम्बेडकर से पूछा था- बौद्धों में बहुत-से यान हैं, आप किस यान की शरण गये हैं?
बाबा साहेब ने दिशानिर्देक जवाब दिया- हम बुद्धयान की शरण गये हैं।
अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ "बुद्ध और उनका धम्म" का समापन उन्होंने महायान में प्रचलित शपथ व प्रार्थना से किया है।
'बौद्ध पूजा पाठ' पुस्तिका का समापन उन्होंने बोधिसत्व अवलोकितेश्वर के महायानी मन्त्र 'ॐ मणि पद्मे हुं' से किया है। पूणे में देहू रोड पर भगवान बुद्ध की एक प्रतिमा का अनावरण व स्थापना बाबा साहेब ने एक महायानी लामा से कराया था। जापान के महायान के प्रखर विद्वान लेखक डा. डी टी सुजुकी बाबा साहेब के मित्र थे। बाबा साहेब की वर्तमान परम पावन दलाई लामा से अच्छी घनिष्टता थी। निधन के मात्र चार दिन पहले 2 दिसम्बर, 1956 को वह परम पावन दलाई लामा जी के निमन्त्रण पर उनके साथ अशोका मिशन बुद्ध विहार, मेहरौली, दिल्ली में थे, जहाँ परम पावन ने उन्हें पुन: बोधिसत्व कह कर सम्बोधित किया था।
बौद्धों के निकाय एक वृक्ष की शाखाएं जैसे हैं। शाखाएं वृक्ष को विशालता देती हैं, आपस में लड़ती नहीं हैं।
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